यह तो मुझे बहुत बाद में पता लगा कि श्री चव्हाण एक रसज्ञ व्यक्ति है और साहित्य, संगीत तथा अन्य ललितकलाओं में उनकी गहरी रुचि है । चीन की तुलना में भारत को प्राचीन बताने की कल्पना श्री चव्हाण को एक हिंदी कवि की रचना से ही प्राप्त हुई थी ।
पहले रक्षा मंत्री, फिर गृह मंत्री, पश्चात् वित्त मंत्री, तदन्तर विदेश मंत्री, और अन्त में उप-प्रधान मंत्री - इन सभी दायित्वों को श्री चव्हाण ने योग्तया के साथ निभाया । विचारणीय विषय को, फिर वह कितना ही जटिल और शुष्क क्यों न हो, हृदयंगम कर उसके सम्बन्ध में अपना मत निर्धारित करने की उनमें अपूर्व क्षमता थी ।
अन्तरराष्ट्रीय वित्त एक गहन विषय है । वित्त मंत्री के रूप में श्री चव्हाण ने विश्व की वित्तीय स्थिति, अन्य देशों के साथ भारत के आर्थिक संबन्ध, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा विश्व बैन्क तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का दृष्टिकोण इन सभी पेचीदा और उलझे हुऐ विषओं का अच्छा अभ्यास कर उनसे सम्बन्धित प्रश्नों का संसद में संतोषजनक उत्तर देकर सबका साधुवादप्राप्त किया । विदेश मंत्री के नाते उन्हें प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित परिघि में रहकर काम करना था और उनके लिये कोई नई पहल करना या नया पग उठावा संभव नाहीं था, किन्तु व्यक्तिगत स्तर पर उन्होंने अपने मृदुल स्वभाव से, धैर्यपूर्वक सबको सुनने की तत्परता से तथा सबसे बढकर अपनी मितभाषिता से अनेक राष्ट्रों के नेताओं से व्यक्तिगत स्तर पर मित्रता के सम्बन्ध कायम करने में कामयाबी पाई । सबको सुनना और स्वयं कम बोलना श्री चव्हाण का ऐसा गुण था जो सार्वजनिक जीवन में उनके लिए बडा उपयोगी सिद्ध हुआ । इसका यह अर्थ नहीं है कि वे खुलकर बात नहीं करते थे या मित्रों के बीच बैठकर वे शब्दों में कृपणता से काम लेते थे । किन्तु वे स्वभाव से मितभाषी थे । जो भी बोलते, नाप-तौल कर बोलते थे इससे उनके शब्दों की कीमत बढती थी ।
किंतु उनके कम बोलने और श्रीमती इंदिरा गांधी के मुह न खोलने के बीच एक बुनियादी अन्तर था । चव्हाण जानते थे कि उन्हें क्या कहना है, क्या करना है । किंतु अपने मंतव्य और गंतव्य को सदैव प्रकट करना वह आवश्यक नहीं समझते थे, किंतु इंदिरा जी की मितभाषिता एक व्यापक रणनीती का अंग हुसा करती थी, जो अंधेरे में टटोल-टटोल कर आगे बढती थी, और जब तक आगले कदम का निश्चय न हो जाय तब तक सबसे परामर्श करने की भंगिमा बनाये रखती थी, किन्तु स्वहित में क्या है इसका एक बार निर्णय होते ही शब्दों की स्वल्पता का स्थान प्रचार का तूफान ले लिया करता था ।
श्रीमती गांधी का नाम आ गया है तो एक ऐसी घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा जिससे श्री चव्हाण के साथ इंदिरा जी के संबंधों पर छोटासा प्रकाश पडता है । यह उन दिनों की बात है जब हिंदी के विरुद्ध तमिलनाडु में तीव्र आंदोलन उठ खडा हुआ था । श्री चव्हाण गृह मंत्री थे । संसद में राजभाषा से संबंधित एक विधेयक पर चर्चा हो रही थी । अपने दल की ओरसे मैंने प्रधान मंत्री के सामने यह सुझाव रखा कि जन्दी में कानून बनाने के बजाय विधेयक को संसद की संयुक्त प्रवर समिति को सौंप दिया जाय । समिती में सभी दलों के सदस्य होंगे और उनके लिए परस्पर विरोधी सभी दृष्टिकोणों को सुनकर आम सहमती के आधार पर कोई रास्ता निकालना सरल होगा । श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि उन्हें मेरा सुझाव मान्य है, किन्तु वे क्या करें, चव्हाण साहब विधेयक को प्रवर समिति को सोंपने के पक्ष में नहीं है । बाद में पता लगा कि श्री चव्हाण को मेरा सुझाव स्वीकार था किन्तु स्वयं प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ही उससे सहमत नहीं थी ।
देशवासी जिस चव्हाण को भलीभांति जानते और मानते हैं वह उनका एक सफल राजनीतिज्ञ का रूप है । किंतु चव्हाण के व्यक्तित्व के और भी अनेक पहलू हैं । ये पहलू जितने नये हैं उतने ही आकर्षक भी हैं । ''ॠणानुबंध'' नामक पुस्तक में उनके व्यक्तित्व के जो नये आयाम उभरे हैं वे मन को मोह लेने वाले है । सत्ता का अपना महत्त्व है । किन्तु मनुष्य की वास्तविक पहचान तब होती है, जब वह सत्ता का परिधान त्यागकर, अपने परिवेश के पार जाकर अपने अंतर्मन की परतों को एक-एक कर खोलता है और सूक्ष्मतम भावों को, जो अब तक गुह्य थे, शब्द देकर संसार के बाजार में मूल्यांकन के लिए प्रस्तुत करता है । कृष्णा और कोयना के पानी में बाल्यावस्था में डूबने और तैरनेवाले चव्हाण इन नदियों के अविरत प्रवाह से कुछ छंद पा सके, कुछ श्रद्धा ग्रहण कर सके, और उन छंदो और श्रद्धाओं को जीवन भर अपने मन में संजोकर रख सके, यह बहुत बडी बात है । यदि श्री. चव्हाण के निकट संपर्क में आए हुए लोग उनके विविधतापूर्ण व्यक्तित्व की स्मृति को ''अत्तराच्या कुपीसारखी'' सुरक्षित रखें तो इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं है ।