अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-९०

महाराष्ट्र निर्मिति के साथ मराठी भाषा को राजभाषा का दर्जा मिल गया । उच्च शिक्षा के दरवाजे सभी लोगों को खुले हुए ऐसी परिस्थिति में जब उच्च शिक्षा के संदर्भ में भाषा का प्रश्न निर्माण हुआ तब यशवंतराव चव्हाणने कहा कि उच्च शिक्षा मातृभाषा में देना चाहिए । शिक्षा हमे निचले स्तर तक पहुँचानी होगी तो वह विदेशी भाषा में कैसे पहुँच जायेगी ? ऐसा मूलभूत प्रश्न उन्होंने उपस्थित किया । देहातों का देश होनेवाला भारत अंधश्रद्ध, निरक्षरता, गरिबी इन में उलझ गया है । ऐसी परिस्थिति में विदेशी भाषा का आधार लेकर उसे ज्ञानामृत पिलाने का तय हुआ तो उनकी दृष्टि से अनाकलनीय बन जायेगा । एक तो उनक सामने अनेक प्रश्न है । ऐसी परिस्थिति में नये प्रश्न बर्दाश्त करने की शक्ति उन में कहाँ से आ जायेगी । ऐसी सार्थ भीति वे व्यक्त करते हैं ।  लोगों को उनकी मातृभाषा में ज्ञान लेने दो यह कहकर लोकभाषा और ज्ञानभाषा एक ही होनी चाहिए । ऐसा वे आग्रह करते हैं ।

यशवंतरावजी ने शिक्षा को संस्कृति का प्रवेशद्वार माना है । उससे समाज का सर्वांगीण विकास तो होना चाहिए । लेकिन उसके साथ शिक्षा से राष्ट्र का समग्र सांस्कृतिक परिवर्तन का माध्यम बनाना आवश्यक है ऐसे यशवंतरावजी को लग रहा था । शिक्षा लेना यह एक भौतिक घटना न होकर शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत और संवेदनशील बनाने का एक साधन है । यशवंतरावजी इस बात का समर्थन करते थे । मनुष्य सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' बनने की प्रक्रिया शिक्षा के संस्कार से होती है । इस विचार पर यशवंतरावजी की अपार श्रद्धा और विश्वास था ।

महाराष्ट्र के शिल्पकार के रूप में यशवंतरावजी का सामर्थ्य सर्वमान्य है । यशवंतरावजी के नेतृत्व मिलने के कारण महाराष्ट्र का भाग्य निखर गया । आज के महाराष्ट्र को सच्चे अर्थो ने 'महा-राष्ट्र' बनाने का सन्मान यशवंतरावजी को है ।

देश की प्रगति वहाँ की शिक्षा पर निर्भर है यह उन्होंने जान लिया था और शिक्षा ही समाजपरिवर्तन का एक प्रभावी साधन है यह पहचान कर यशवंतराव चव्हाण ने महाराष्ट्र के शैक्षणिक वातावरण को गतिमान किया । शिक्षा का प्रचार और प्रसार करने के लिए उन्होंने अनेक सहुलियते देकर शिक्षा का प्रचंड प्रवाह महाराष्ट्र के प्रत्येक शहर में और प्रत्येक देहात में पहुँचा दिया ।

यशवंतरावजी ने प्रत्येक व्यक्ति को मातृभाषा में शिक्षा देने की आवश्यकता पर जोर दिया । सामान्य मनुष्य को विदेशी भाषा में आकलन होना संभव नहीं है । ज्ञानभाषा और लोकभाषा हुए बगैर समाज का जीवन समर्थ नहीं हो सकेगा । ग्रामीण शिक्षा अर्थात आसपास के विभागों का विकास करने का साधन जब शिक्षा बनेगा तब उसे उपयुक्त शिक्षा कहा जायेगा । शैक्षणिक संबंध में शहर और देहात में दोनों में अंतर कम पड रहा है ऐसा डर उन्हें लगता था, अतः यह अंतर कम करने की जरूरत पर वे अधिक भर देते हैं । कोई भी शिक्षा प्रश्न सुलझानेवाली होनी चाहिए, वह प्रश्न निर्माण करनेवाली हो तो उसका पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए ।

शिक्षा यह जीवनदायी गंगा है । ये गंगा किसान, मजदूर, दलित, पददलितों के दहलीज तक पहुँच जाये इस दृष्टि से यशवंतरावजी के नेतृत्व में शासन ने रूपरेखा तैयार की ।  समाज में आर्थिक दुर्बल घटकों को मुआफी शिक्षा, उसके साथ ही बस्ती और काफिले तक शाला-महाविद्यालयों का विस्तार किया गया । उन्होंने एक बार कहा था - Mass Education is silent revolution गुणवत्ता के नाम पर बहुजनों को शिक्षा इन्कार कर दी गयी थी । इसलिए उन में निराशा फैली थी । यशवंतरावजी को इतिहास का ज्ञान था ।  महाराष्ट्र में संत, वीर, पराक्रमी, विद्वान, देशभक्त और राजनीतिज्ञ लोगों की परंपरा है ।  यशवंतरावजी ने उस परंपरा में अंतर पडने नहीं दिया । परिवर्तनशील महाराष्ट्र को यशवंतरावजी के रूप से भव्य सपना पडा था । प्रत्येक शहर में और देहात में शिक्षा कैसे पहुँच जायेगी इसके लिए शासकीय नीति अमल में लायी ।

मानसिक और बौद्धिक सामर्थ्य के लिए शिक्षा समाजकेंद्रित की । इसलिए तो आज ग्रामीण और आदिवासी भाग में विद्यार्थी अभियांत्रिकी, वैद्यकीय, तंत्रविषयक क्षेत्र में नाम कमा रहे हैं । शिक्षा अंतिम मनुष्य तक पहुँच जाये इसके लिए उन्होंने लोकाभिमुख निर्णय लिये । गरिबों के विषय में बहुत प्रेम होने के कारण यशवंतरावजी ने शिक्षणविषयक उपक्रम देहातों में कार्यान्वित किये । इसलिए उन्होंने सच्चे अर्थों में 'युगांतर' निर्माण किया । स्वातंत्र्य नाम की संकल्पना को मूर्त स्वरूप प्राप्‍त कर देने के लिए दो बातों की जरूरत है । एक रोटी और दूसरी ज्ञान । वह विकास की चाबी है ।  यशवंतरावजी ने यह चाबी बहुजनों पर सौंप दी । इसी कारण हम यशवंतरावजी को मूलभूत दृष्टि के रूप में पहचानते है ।

डॉ. कुमार सप्‍तर्षी यशवंतरावजी के विषय में कहते है - 'जनता की सामुदायिक विवेकबुद्धिपर दृढ विश्वास होनेवाला प्रज्ञावंत राजनीतिज्ञ, विचारों का सम्मान करनेवाला और मराठी मनुष्य को अपने मनोविश्व का केंद्रबिंदू माननेवाला नेता था । विचारों की राजनीति करनेवाले यशवंतरावजी को सह्याद्रि का महामेरू ऐसी उपाधि पंडित नेहरूजी ने दी थी ।'

महाराष्ट्र के समाजकारणों में अनेक तत्त्वों के माध्यम से जो क्रांति हो गयी है उन में से शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । महात्मा फुलेजी और सावित्री फुलेजी इन दोनों ने प्रौढ शिक्षा, स्त्रीशिक्षा और समाजशिक्षा इनके माध्यम से क्रांतिकारक कार्य का प्रारंभ किया । यशवंतरावजीने महात्मा फुलेजी का कार्य आगे चलाया । उद्योग, खेती और शिक्षा ये यशवंतरावजी के शासकीय नीति की त्रिसूत्री थी ।