इस सामाजिक परिषद में यशवंतरावजी आगे कहते हैं कि - 'जनतंत्र सफल करने के लिए केवल चुनाव की राजनीति उपयोग में नहीं आयेगी । यह बात पक्षीय नेताओं को पहचाननी चाहिए । समाजकारण यह राजनैतिक पूँजी नही होनी चाहिए । राजनीतिमें से जातियता को एकसाथ निकाल देना चाहिए । पुराने सडके विचार फेककर नये विधायक विचार, नयी मानवता का पालन-पोषण करना चाहिए । देश की प्रगति की दृष्टि से कदम कदम पर आगे जाना हो तो सामाजिक सुधार की ओर ध्यान देना चाहिए ।'
यशवंतरावजी के विचार केवल राष्ट्रतक सीमित नहीं है । आज तो दुनिया जिस वैश्विक वृत्ति से नजदीक आ रही है, राष्ट्र की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था का महत्त्व कम हो जाने से संपूर्ण दुनिया की एक अर्थव्यवस्था बन रही है, जिसे हम जागतिकीकरण कहते हैं, उसका विचार यशवंतरावजी के नेतृत्वने ५० वर्ष पूर्व प्रकट किया था ।
वे कहते हैं - 'पंचशील यह तत्त्व संयुक्त राष्ट्र संघटना के समूह हित के तत्त्वों से सुसंगत हे । पंचशील तत्त्व का प्रचार हुआ कि सारी दुनिया एक हो जायेगी, एक परिवार आराम से सुख से रह सकेगा । तथापि यह कल्पना आसानी से स्वीकृत नहीं की जायेगी । क्योंकि उसका स्वरूप ही ऐसा होता है कि उसके लिए मानसिक क्रांति की अधिक आवश्यकता होती है और प्रसंग आने पर कष्ट भी बर्दाश्त करने पडेंगे ।' वे आगे कहते हैं, 'विभिन्न राष्ट्रों में समझदारी लाने की दृष्टि से आप को इस कार्य के लिए समर्पित होना चाहिए । यथावकाश युद्ध का पूर्णतः विनाश होगा यानी कि युद्ध नहीं होंगे । संपूर्ण शांति बनी रहेगी । भारत दुनिया को शांति और सहिष्णुता का संदेश पहुँचाने की सहाय्यता करेगा ।' भारत की आध्यात्मिक शक्ति के विषय में कितना आत्मविश्वास ! और दूरगामी विचार करने की क्षमता । इतनी ऊँचाई पर जाकर विचार और कृति करने की उनकी क्षमता प्रशंसनीय है । इसी संदर्भ में संयुक्त महाराष्ट्र का प्रश्न भी यशवंतरावजी राष्ट्रीय दृष्टि से हल करना चाहते थे । उनकी यह कृति प्रशंसनीय एवं उचित है । इसके पीछे उनका दृष्टिकोन यही था कि किसी भी तरह से राष्ट्र को हानि न पहुँचे । कितना उदात्त दृष्टिकोन है उनका ।