अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-८८

शिक्षा

आज के विद्यार्थियों की शिक्षा का विकास होना चाहिए । वही आज का सच्चा प्रश्न है ।  उन में होनेवाला अज्ञान दूर करना चाहिए । ये महत्त्वपूर्ण बदल लाने के लिए पहली दो पंचवार्षिक योजनाएँ हुई । परंतु किसान को सचमुच फायदा नहीं हुआ है । यह सच है कि खेती में सुधार नहीं हुआ उसके लिए किसानों को और उनके लडकों को उच्च शिक्षा मिलनी चाहिए । उसे गँवार रखकर उनका विकास कैसे होगा ? नया विचार, नया मनुष्य निर्माण किये बगैर कुछ साध्य नहीं होगा । मैं यह नया सपना देख रहा हूँ । यह तो महाराष्ट्र राज्य का सपना है ।

यशवंतरावजी ने शिक्षा क्षेत्र को बडा महत्त्व दिया है । महाराष्ट्र राज्य स्थापन होने के बाद उन्होंने गरीब परिवार में से आये हुए विद्यार्थियों को शिक्षाविषयक फीस की मुआफी की सहुलियते दी । इसके साथ ही ग्रामीण विभाग में शिक्षा संस्था, ग्रामीण विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष सहुलिते जाहीर की । उस समय जिस गति से ग्रामीण क्षेत्र में कॉलेज निर्माण हुए हैं, उससे शिक्षाविषयक दर्जा घट जायेगा और ग्रामीण क्षेत्र में विद्यार्थियों को दुय्यम दर्जा की शिक्षा मिलेगी ऐसी आलोचना की गयी ।  कुछ विद्वान लोगोंने उथली शिक्षा कहकर आलोचना करके कुछ आक्षेप लिये ।  यशवंतरावजी को वह आलोचना मंजूर नहीं थी, उन्होंने स्वीकार भी नहीं किया । पर उन्होंने कहा - 'मैं जिस विभाग में रहता हूँ, वहाँ कृष्णा नदी का पात्र उथल है । परंतु कृष्णा नदी जैसे पूर्व की और बहती है, वैसे उसका पात्र गहरा बन जाता है । आज जो शिक्षा आप को शायद उथल लगती हो, उस शिक्षा का दर्जा कुछ वर्षों के बाद घटेगा इसके बारे में मेरे मन में शक नहीं है । आज आपने ग्रामीण क्षेत्र में फैला हुआ शिक्षा का जाल देखा तो वहाँ कहने में बहुत तथ्य है । आज कल अनेक वर्ष एस.एस.सी. और हायर सेकंडरी में जो लडके प्रथम श्रेणी में आते है, उस में प्रधानतः ग्रामीण विभाग में लडकों का प्रमाण अधिक है । इसके पहले दादर और पुणे के लडके पहले दस-बीस क्रमांक में आते थे, परंतु वह चित्र आज बदल गया है । आज लातूर विभाग में जो विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में आते हैं, उनके विषय में संपूर्ण महाराष्ट्र आश्चर्यचकित हुआ है ।'

महाराष्ट्र राज्य जनतंत्र समाजवाद की प्रयोगशाला बने इसलिए उन्होंने बहुत प्रयत्‍न किये । उसकी नीव डालने का और उस पर इमारत खडे करने का कार्य शिक्षा को करना पडता है यह पहचानने की दृष्टी यशवंतरावजी को थी । इतिहास का एक जिज्ञासू, अभ्यासू और सृजनशील विचारसंपन्न, एक द्रष्टा नेता, प्रशासक होने का भाग्य प्राप्‍त होने के कारण शिक्षा की अनिवार्यता उन्होंने ध्यान में ली ।

२५ अगस्त १९६० में विधानसभा में 'जनतंत्र नियोजन' इस विषयपर महत्त्वपूर्ण विचार प्रकट करते हुए उन्होंने शिक्षा के संबंध में अपने विचार स्पष्ट किये -

(१)  माध्यमिक शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया गया ।
(२)  होशियार और बुद्धिवान विद्यार्थियों को किसी प्रकार की बाधाएँ न आये । इसलिए
उन्हें शिष्यवृत्तिद्वारा मदद की जायेगी । ऐसी भूमिका उन्होंने ली ।
(३) इस नीति के प्रभावी अमल के लिए ई.बी.सी. की सहुलियत जाहीर की । महाराष्ट्र
राज्य ने स्वतंत्रता से उठायी गयी यह पुरोगामी नीति है ।  
(४) पिछडे हुए विद्यार्थियों को शिष्यवृत्तियाँ देने की नीति अपनायी ।
(५)  लोकभाषा यह ज्ञानभाषा होनी चाहिए यह विषय बहुत मूलगामी स्वरूप का होता है ।
(६)  शिक्षा संस्कृति का प्रवेशद्वार है ।
(७)  शिक्षाविषयक क्षेत्र में सतत प्रयोगशीलता आती रहे । ऐसी उनकी अपेक्षा थी ।
(८)  महाराष्ट्र शासन ने निजी संस्थाओं को तंत्र निकेतन और इंजिनिअर्स कॉलेज खोलने
की इजाजत दी । यह महाराष्ट्र शासन का निर्णय क्रांतिकारी है । यशवंतरावजी ने इसका स्वागत किया ।
(९)  विज्ञान तंत्रज्ञान की सहाय्यता से महाराष्ट्र सुजलाम सुफलाम करेंगे ऐसा उनका
विश्वास था ।
(१०) उद्योग धंदे के विकास के लिए प्रशिक्षा देनी चाहिए । श्रमिक प्रशिक्षित होनेपर औद्योगिक विकास के लिए उसका फायदा होगा । प्रशिक्षित श्रमिक नये तंत्र का,
यंत्र का इस्तेमाल करने के लिए प्रवृत्त होगा । इससे नये उन्नति का मार्ग श्रमिक को प्राप्‍त होगा । इससे गरिबी कम होगी और पेशे के मौंके में वृद्धि होगी ।