अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-९३

कृषी

शिक्षा यह समाजपरिवर्तन का एक प्रभावी साधन है इस पर उनका दृढ विश्वास था ।  खेती का शास्त्रीय दृष्टिकोन लोगों में बढाना चाहिए । पढा हुआ मनुष्य किसान होना चाहिए । तुम्हारी खेती तुम्हारा विचार न रहकर देश का विषय बनी हुई है । तुम्हारी खेती नहीं फलेगी तो तुम्हारा नसीब अथवा भाग्य नहीं फलेगा । यशवंतरावजी के ये शब्द कितने दूरदर्शी और गहरे हैं जो खेती का विचार करते हैं ।

किसान खेती की ओर व्यवसाय के रूप में देखता नहीं, वह उसे जीवन-निर्वाह के साधन के रूपमें देखता है । व्यवसाय अथवा धंदा करनेवाला मनुष्य धंदे में मिलनेवाला मुनाफे का आर्थिक फायदे के लिए इस्तेमाल करता है । इसलिए खेती व्यापारी तत्त्वों पर करनी चाहिए । ऐसा हुआ तो किसानों का उत्कर्ष हो सकेगा ।

खेती के आधुनिकीकरण संबंध में हम बहुत पीछे पडे हैं । इसलिए खेती का विकास नहीं हुआ है । खेती के विकास में कर्ज का प्रश्न, खाद, बीज, पानी पूर्ति का प्रश्न महत्त्वपूर्ण है । उसका छुटकारा उचित पद्धति से नहीं होता । इसलिए सैकडों वर्षों से खेती का विकास ठहर गया है ।

किसान अज्ञानी होने से कोई भी प्रबोधनकारी विचार तुरन्त स्वीकार नही करते । यही मनोवृत्ति खेती के तांत्रिक विकास के लिए बाधा बनती है । भारतीय किसानों ने खेती और शिक्षा इन दोनों का संबंध तोड दिया है । किसान और खेती से संबंधित मनुष्य विद्वान हुए बगैर खेती में होनेवाली हानि टल नहीं सकेगी । इसलिए किसान को अकलमंद करने के लिए उसे आधुनिक पद्धति से खेती का ज्ञान देकर उसका अज्ञान दूर करना चाहिए । इसलिए खेतीशास्त्र के अभ्यास के लिए अधिक महत्त्व देना चाहिए ।  खेती का नया तंत्रज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान की प्रत्यक्ष खेती में प्रयोग की जरूरत और परिर्वतन से आनेवाली खेती में आर्थिक समृद्धि यही मूल विषय लेकर परंपरागत खेती की कल्पना दूर हटाने का आव्हान किया । नये प्रयोग का ज्ञान किसान के लडकों तक पहुँच जाना चाहिए । इसलिए कृषी विद्यापीठ की स्थापना पर जोर दिया । यशवंतरावजी ने अगुआई कर के परभणी और अकोला में कृषी विद्यापीठ की स्थापना की । किसान और खेती से संबंधित लोग विद्वान, समझदार नहीं होंगे तबतक भारतीय खेती उपजाऊ नहीं होगी । यह विचार सामने रखकर कृषी शिक्षा पर जोर देने का काम जोश से किया ।

यशवंतरावजी चव्हाण बडे जननेता थे । सच्चा जननेता यह एक अर्थ से जनशिक्षक होता है । उन्होंने जीवनभर जनशिक्षा का कार्य किया । सत्ताधीश होने से पहले, सत्ता पर आने के बाद, सत्ता से दूर जाने के बाद इन तीनों अवस्था में उन्होंने जन-शिक्षा का कार्य सतत किया ।

यशवंतराव को कृषी औद्योगिक समाजरचना अभिप्रेत थी । उसके लिए ग्रामीण विभाग में खेती के माल पर प्रक्रिया करनेवाले उद्योग शुरू करने चाहिए । इससे किसानों को बाजारपेठ मिलेगी । उसके साथही उद्योग के लिए लगनेवाला कच्चा माल प्राप्‍त होगा ।  वह कच्चा माल बाहर से नहीं लाया जायेगा । वह लाने के लिए परिवहन के खर्च में बचत होगी । लोगों के परिश्रम बचेंगे । इतनाही नही तो ग्रामीण विभाग में उद्योग शुरू होने से वहाँ के लोगों को मजदुरी मिलेगी और उन्हें शहर की ओर जाने की जरूरत नहीं पडेगी ।  

ग्रामीण विभाग में औद्योगिक वसाहत स्थापन करनी चाहिए । यह विचार मूर्त स्वरूप में लाने के लिए एम.आय.डी.सी. की स्थापना कर जिला और तालुका स्तर पर औद्योगिक वसाहते निर्माण की गयी है । इससे विकेंद्रीकरण को मदद हो रही है ।

एकाध व्यक्ति के पास ज्यादहसे ज्यादह कितनी जमीन चाहिए इसका सामाजिक समता और न्याय भूमिका की दृष्टि से विचार किया गया । खेती करनेवाला मनुष्य खेती का स्वामी होना चाहिए । अर्थात जो खेती करेगा उसकी जमीन और उस में परिश्रम करेगा उसकी खेती यह तत्त्व स्वीकार किया गया।