अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-९१

यशवंतरावजी शिक्षा की तरफ जरूरत के साथ आर्थिक विकास का एक मुलभूत साधन की दृष्टी से देखते थे । शिक्षा का महत्त्व विशद करते हुए यशवंतरावजी कहते है - 'शिक्षा का प्रकाश समाज के अन्तिम स्तर तक हम ले जा सके तो महाराष्ट्र की शक्ति इतनी बढेगी की उसे किसी की कृपा पर निर्भर रहने का कोई कारण नही रहेगा । वह अपना और अपने राष्ट्र की रक्षा करेगा ।' शिक्षा के संबंध में उनका यही मूलगामी दृष्टिकोन था ।

यशवंतरावजी कहते हैं - 'ज्ञान यह एक शक्ति है । विद्या यह एक प्रकार की ऊर्जा है तो शिक्षा यह जलसिंचन है । महाराष्ट्र की इतनी बडी शैक्षणिक परंपरा होते हुए भी आज की तरुण पिढी स्थान स्थान पर जातीयवाद करती है इसका मुझे खेद है ।'

इसी प्रकार की जातिभेद की दीवारें तोडकर यशवंतरावजी को मानवतावाद प्रस्थापित करना था । इसलिए उन्होंने अपने कार्यकाल में सामाजिक, आर्थिक और समता स्थापित करने के कानून बनाये ।

अनेक पिढियाँ शिक्षा से वंचित रह गयी थीं । इसलिए यशवंतरावजी उन्हें शिक्षा देने के लिए कटिबद्ध हो गये । जहाँ गाँव वहाँ प्राथमिक शाला स्थापन कर के शिक्षाप्रचार का कार्य बढाया । मुफ्त और सक्त शिक्षा, प्राथमिक शाला का खेतीविषयक बेसिक जीवन शिक्षा शाला में रूपांतर, प्राथमिक शालाओंकी स्वतंत्र इमारते ऐसे दूरदर्शी निर्णय उन्होंने लिये ।

माध्यमिक शिक्षा अर्थपूर्ण और सर्वस्पर्शी होनी चाहिए । समाज कें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अनेकविध प्रश्नों का उस में विचार होना चाहिए । ऐसी माध्यमिक शिक्षा की व्यापकता बढाने के लिए उन्होंने अनेक निर्णय लेकर जनहित करने का प्रयास किया । ग्रामीण भाग में अधिकाधिक विद्यार्थियों को माध्यमिक शिक्षा का अवसर मिलना चाहिए इसलिए उन्होंने निजी संस्थाओं को हाइस्कूल खोलने की इजाजत दी । इसके साथही उन्होंने इस संस्थाओं को अनुदान देने की योजना अमल में लायी ।  माध्यमिक शिक्षा का दर्जा बढाने के लिए ७ मार्च १९६० को पूना में एस.एस.सी. बोर्ड की स्थापना की ।

समता पर आधारित समाज निर्माण करने के लिए आर्थिक विकास यह एक महत्त्व का साधन है । इसी प्रकार की समाजरचना का सपना साकार होने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है । समाज में अज्ञान, दारिद्र्य, रूढी, परंपरा, सनातनी प्रवृत्तियाँ नष्ट करनी हो तो हर एक मनुष्य को शिक्षा की 'तीसरी आँख आवश्यक है ।

यशवंतरावजी ने गरीब विद्यार्थियों को इ.बी.सी. की सहुलियत देने पर आलोचकों ने कहा कि इस निर्णय से हजारों बेकार निर्माण होंगे । यशवंतरावजी ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा - 'मुझे अशिक्षित बेकारों की फौज की अपेक्षा सुशिक्षित बेकारों की फौज चलेगी ।  क्योंकि वे देश के प्रश्न ध्यान में लेकर उन्हें सुलझाने का प्रयत्‍न तो कर सकेंगे ।'

वे कहते है कि -'मनुष्य के पास जो जो अच्छा है उसका गौरव होना चाहिए । विद्या के मंदिर में किसी प्रकार का भेद न होना चाहिए । ज्ञानामृत की प्यास हर एक को होनी चाहिए । समाजवादी समाजरचना में यह तत्त्व प्रमुखता से माना जाना चाहिए ।'

शिक्षा की पद्धति में और शिक्षित युवकों की मनोवृत्ति में बदल करना चाहिए । केवल नौकरी प्राप्‍त करने के लिए अथवा उदरनिर्वाह का उद्योग प्राप्‍त करने के साधन के रूप में शिक्षा की ओर देखना उचित नही हैं । शिक्षा से युवकोंमें नौकरी पेशेकी निर्माण होनेवाली प्रवृत्ति घातक है । शिक्षा और नौकरी का संबंध जोडना उचित नही है ।

उच्च शिक्षा के संदर्भ में यशवंतरावजी कहते है की - उच्च शिक्षा पर केवल मुठ्ठीभर लोगोंका अंमल प्रस्थापित हुआ तो समाज की अधोगति हो सकती है । इसलिए ज्यादह से ज्यादा लोगों तक उच्च शिक्षा का लाभ पहुँचाना चाहिए । ऐसा हुआ तो जात, धर्म, पंथ आदि संकुचित वृत्ति में से समाज बाहर आकर सामाजिक जीवन अधिक निर्दोष, साफ, स्वस्थ हो सकेगा ।

विद्यापीठीय शिक्षा में, अभ्यासक्रम में कौनसी बातों का समावेश होना चाहिए ?  संशोधन कार्य किस प्रकार होना चाहिए ? इस संबंध में यशवंतरावजी ने कहा - 'तुम जिस कालखंड में रहते हो, जिस प्रदेश में रहते हो उसी कालखंड में और प्रदेश में जो ज्वलंत समस्याएँ हैं, उस विभाग की महत्त्वपूर्ण जरूरते हैं, वहाँ घटनेवाली घटनाएँ, वस्तुस्थिति है इन सबका गहरा अभ्यास, संशोधन कार्य होना आवश्यक है । जिस प्रदेश में विद्यापीठ है, विद्यापीठ को उस प्रदेश का अविभाज्य भाग बनना चाहिए ।'

ज्ञानभाषा यह मातृभाषा, लोकभाषा हो इसलिए शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो यह महात्मा गांधीजी की भूमिका यशवंतरावजी को मंजूर थी । उनके मत के अनुसार यदि शिक्षा निचले स्तर तक पहुँचाना हो तो विदेशी भाषा में शिक्षा देना नहीं चलेगा । शिक्षा मातृभाषा में देनी चाहिए । ज्ञानभाषा और लोकभाषा एक हुए बगैर समाज, उन्नत विकसित नहीं होगा । भाषा का सच्चा सामर्थ्य विचार करने में हैं । विदेशी भाषा में विचारों की अपेक्षा पाठांतर पर जोर रहता है । हमारे विचारों को चालना नही मिल सकेगी तो इसी प्रकार की शिक्षा निकम्मी होती है । भारत में प्राचीन काल से ज्ञानभाषा और मातृभाषा इन दोनों में अलगाव था । इसलिए सामान्य मनुष्य तक ज्ञान अथवा विचार पहुँच नही सके ।