अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार ९७

समाजवाद

यशवंतरावजी का वैचारिक आधारस्तंभ समाजवाद है । काँग्रेस में समाजवादी समाजरचना का संकल्प पक्ष को जाहिर किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने सतत प्रयत्‍न किया ।  महाराष्ट्र में सामाजिक समता और न्याय कैसे मिल सकेगा इस पर उनका जोर था ।  वह करते समय उनका ध्यान ग्रामीण जनता और उस जनता में गरीब और निचले स्तर के लोगों तक अलग अलग योजना और उसके फायदे कैसे मिल सकेंगे इसकी ओर था ।  उस दृष्टि से उन्होंने अपने मन में महाराष्ट्र के बाँधनी का चारसूत्री कार्यक्रम तय कर रखा था ।

खेती में अकालग्रस्त भाग का प्रश्न और उनका विकास इनकी ओर उनका ध्यान था ।  क्योंकि वे उस भाग से आये थे । उस भाग में लोगों के क्लेश और कष्ट इसका उन्हें अच्छा आकलन हुआ था । उसके साथ खेती उद्योग जब तक प्रगत नहीं होता तब तक ग्रामीण विभाग का सच्चा विकास नहीं होता और उस दृष्टि से कृषी का औद्योगीकरण और कृषीसंबंधी की दृष्टि से औद्योगीकरण जल्दी से जल्दी होना चाहिए इस पर उन्होंने जोर दिया था । आज महाराष्ट्र में और विशेषतः दक्षिण महाराष्ट्र में, खेतीसंबंधी अथवा खेतीपर आधारित जो उद्योगधंदे प्रस्थापित हुए हैं और जिसके कारण तेजी से ग्रामीण विभाग की प्रगति हुई हैं इसका संपूर्ण श्रेय यशवंतरावजी को है ।

इसके साथ ही महाराष्ट्र के अलग अलग विभागों में उद्योगधंदे स्थापन करने के लिए जो संस्थाएँ यशवंतरावजी के डेढ वर्ष के कार्यकाल में स्थापन हुई इन सबको हम जानते हैं ।  उस में सिकॉम, एम.आय.डी.सी. एन.एम.एफ.सी. हैं । इन संस्था का जाल आज सभी ओर फैला हुआ दिखाई देता है ।

यशवंतरावजी की समाजवाद की कल्पना जनतंत्र पर आधारित है । मार्क्सप्रणीत रशिया में समाजवाद जनतंत्र को मारक है । भारत में समाजवाद लाने के लिए यहाँ की परिस्थिति ध्यान में लेनी चाहिए । समाजवादी मार्ग से यह प्रगति साध्य कर सकेंगे ।  भारत में उसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र की निर्मिति और विस्तार करने की नीति फायदेमंद होगी ।

सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा देश में लोगों का कल्याण साध्य करना यह भारत में समाजवाद का असली सूत्र है । भारतीय लोगों में जो आर्थिक दरार पडी है उसे कम करना समाजवाद का उद्देश है । उसके अनुसार समाज में सभी लोगों को एकसमान बर्ताव और समान प्रकार का मौका निर्माण करना केवल समाजद्वारा संभव है ऐसा मत उन्होंने व्यक्त किया ।

समाजवाद में किसी का शोषण न हो यह यशवंतरावजी को अभिप्रेत था । जिस में हर एक की भौतिक और आर्थिक समस्याएँ सुलझी है ऐसी समाजरचना यानी कि समाजवाद है । सब को समान मौका देकर उत्पादन में होनेवाला फर्क या अंतर कम करना यही समाजवाद का उद्देश है ।

आर्थिक विषमता से होनेवाला शोषण बंद करना, हर एक को संधी उपलब्ध कर देना यानी कि समाजवाद है, ऐसी व्याख्या उन्होंने की थी ।

समाजवादी समाजरचना निर्माण करना यह तो अपनी राज्यघटना का उद्देश है । भारत का वह निश्चय है, ध्येय है । फिर भी अंतिम मंजिल तक पहुँचने के लिए यशवंतरावजी ने तीन कसौटियाँ स्पष्ट की है -

(१) सबको समान अवसर ।
(२) उत्पादन के पीछे की प्रेरणा यह व्यक्तिगत या वैयक्तिक मुनाफे की अपेक्षा समाज के सुख की, समाज के हित की होनी चाहिए ।
(३) उत्पादन के साथ वितरण का मुद्दा भी महत्त्व का है । विभाजन होते समय लोगों की जरूरते और उनके विकास की संभावना ध्यान में लेनी चाहिए ।

ये कसौटियाँ होनेवाला सच्चा समाजवाद भारत में प्रत्यक्ष ला नहीं सकते इसका एहसास उन्हें था । उसके लिए सार्वजनिक क्षेत्रों पर बल देना आवश्यक है ऐसा मत उन्होंने व्यक्त किया था । सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार अथवा सार्वजनिक उद्योग यही समाजवाद की ओर जाने का एक मार्ग है । सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगधंदे समाजवाद की दृष्टि से रखा हुआ एक कदम है, जिस पर जनतंत्र समाजवादी रचना की जा सकेगी ।

जनतंत्र, नियोजन, समाजवाद ये जनकल्याण के एक ही समस्या के तीन अलग-अलग अंग है । सबको समान मौका मिलना चाहिए । उत्पादन में कम फर्क करनेवाला आर्थिक विषमता से होनेवाला शोषण ठहरानेवाला, प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिमत्त्व विकसित करने का समान अवसर प्राप्‍त कर देनेवाला समाजवाद यशवंतरावजी को अभिप्रेत था ।