अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-८

वैसे देखा जाय तो देवराष्ट्र में उपजाऊ जमीन थोडी है । उस समय सिर्फ चार-पाँच स्थानों पर पानी के कुएँ और उसके आसपास होनेवाले हरे-हरे बागान । इतनेही कुछ समृद्धि के स्थान थे । शेष सभी खेती सूखी थी । और इस सूखी खेती पर बहुत कष्ट करनेवाले किसान देखे जाते थे ।

यशवंतरावजी की उम्र जैसे बढती गयी वैसे गाँव की इस आर्थिक और सामाजिक पार्श्वभूमि पर गाँव के प्रश्नों की ओर देखने का दृष्टिकोन बदलता गया । आगे वे अनेक वर्षोंतक इस गाँव में आते थे और उन्होंने समय समय पर जो-जो बाते देखी थी वे सब बातें गाँव की सीमातक मर्यादित थी, ऐसा नहीं था । इस गरीबों में रहनेवाले लोग मानवता से वंचित नहीं हुए थे । यह उसमें से एक अच्छी बात थी ।

यशवंतरावजी ने अपने बचपन में देखे हुए मनुष्य और उनकी लोभनीय यादे याद आती है । उनके नाना के घर के पडोस में रहनेवाले मुस्लिम परिवार से उनकी मित्रता थी ।  उसी तरह पडोस में रहनेवाले कंबल बुननेवाले और गडरिया लोगों से उनकी बडी आत्मीयता थी । उन्हें उस समय का सब याद आता है । फिर भी जाति-जाति में आपस में शत्रुता कब कैसे निर्माण हुई, यह समझ में नहीं आता । उस समय एक दूसरे के साथ मानवता के रिश्ते की प्रतिबद्धता थी ।

एक बात बताना आवश्यक है कि इन सब समाज से दूर और गाँव के बाहर रहनेवाले हरिजन, मातंग और चमार इन लोगों का गाँव से कम संपर्क आता था, और जो कुछ था, वह जिस मनुष्यता का यशवंतरावजी ने ऊपर वर्णन किया था, उसका उससे उचित संबंध था, ऐसा नहीं कहा जा सकता । आज यशवंतरावजी दलितों के प्रश्नों की ओर देख रहे हैं, वह दलित समाज उस समय गाँव के बाहर अलग तरीक से अपना जीवन बिता रहा था, उसे जीवन यह नाम देना है कि नहीं, यह एक अलग प्रश्न था ।

लेकिन यशवंतरावजी वहाँ जो उल्लेख कर रहे थे वह छोटी-छोटी जाति-जमातियों का ।  गाँव में पाटील लोगों के परिवार मान-सम्मान के थे । उन में भी इज्जतदार बुजुर्ग लोग सबको सँभालकर लेनेका प्रयत्‍न करते थे । लेकिन उसके पीछे एक सूत्र था । आगे चलकर यशवंतरावजी को इसका अनुभव आया । राज्य शासन से मिलजुलकर नम्रता से रहना यह इस सूत्र का नाम था । छोटे-बडे लोग गाँव के पाटील को मान दे, गाँव के पाटील पास-पडोस के पुलिसों को मान दे, ऐसी प्रथा थी । गाँव का पटवारी यह कर्ता मनुष्य माना जाता था । और इन सब में बडी आसामी अर्थात तहसील का तहसीलदार ।  तहसीलदार जब गाँव में आता, तब उनकी बहुत बडी खातिरदारी की जाती । इसलिए गाँव में बडी हलचल मच जाती ।

शासन से डरकर नम्र होकर बर्ताव करने की यह प्रवृत्ति उस समय के जीवन का एक गृहीत कृत्य था । उस समय उनकी जानकारी वहाँ तक पहुँचीही नहीं थी । शिक्षा कम, बाहर के संसार से संपर्क कम, जो है उस में समाधान मानने की प्रवृत्ति, किसी के बीच में न पडना, सीर्फ तटस्थ रहना, यही उस समय की नीति थी । यही वहाँ के जीवन की नीति थी । इसलिए उस में गति भी नहीं थी और प्रगति भी नहीं थी । इस गाँव का आया हुआ यह अनुभव आगे यशवंतरावजी कार्यकर्ता के रूप में जब जिले में अन्यत्र घूमने-फिरने लगे तब भी थोडे बहुत अंतर से उन्हें वही अनुभव फिरसे आये । कुछ स्थानों पर समृद्धि अधिक थी । वहाँ के धनिक लोगों की आक्रमता गरीब लोगों के संबंध में अधिक थी । यही फर्क कुछ स्थानों पर अवश्य महसूस हुआ । लेकिन शासन के विरोध में कुछ नहीं बोलना चाहिए यह उस समय के किसान समाज का और किसान समाज के ऊपर निर्भर रहनेवाले ग्रामीण समाज का स्वभाव बन गया था ।

खेती से संबंध होनेवाला मनुष्य निकट की राजनैतिक सत्ता को बहुत उच्च मानता है ।  यह अनुभव उन्हें आगे भी आता रहा । देवराष्ट्र का यह अनुभव उनके मन को एक प्रकार की शिक्षा दे रहा था । कार्यकर्ता के रूप में कार्य करने के लिए मन की जो तैयारी होनी चाहिए और समाजिक जानकारी आवश्यक होनी चाहिए यह जानकारी उन्हें इसमें से मिलती गयी ।