अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-१०

यशवंतरावजी का जन्म, जन्मतिथि और जन्मस्थान

देवराष्ट्र के दाजीबा घाडगे की बहन विठाबाई का बलवंतराव चव्हाण के साथ विवाह हुआ । एक किसान की बेटी दूसरे किसान के घर में गयी थी । बलवंतराव चव्हाण ढवलेश्वर गाँव के मूल निवासी थे । लेकिन श्री. रामभाऊ जोशी ने चव्हाण का मूल गाँव भालवणी बताया है । लेकिन यशवंतरावजी ने 'कृष्णाकाठ' में अपना मूल गाँव 'ढवलेश्वर' बताया है । उनकी माँ ने उनसे यह बात बतायी थी । इसलिए इस बात को सच मानना ही पडेगा । ढवलेश्वर नाम का गाँव विटा गाँव से पाँच-छः मील दूर है । उसके आसपास भालवणी, कलंबी, आलसुंद नाम के गाँव हैं ।

विठाई अब तीन बच्चों की माँ बन गयी थी । पहला ज्ञानोबा, दूसरी लडकी राधाबाई और उसके बाद गणपत । विठाई अब चौथे बालक को जन्म देनेवाली थी । स्वयं यशवंतरावजी ने अपनी आत्मकथा 'कृष्णाकाठ' में लिखा है - ''मैं मेरी माँ का पाँचवा या छटवाँ अपत्य था ।'' प्रसूति के लिए वह देवराष्ट्र में आयी थी । आक्का की प्रसूति अपने घर में होती है यह देखकर घाडगे के घर में सब को आनंद हुआ । विठाई की माँ की बहुत गडबड चल रही थी ।

आक्का की पहली प्रसूतियाँ अच्छी हुई थीं । अब की प्रसूति । लेकिन इस समय एकाएक परिस्थिति अलग बन गयी । उस दिन शाम से गडबड शुरू हुई थी । विठाई की माँ साहसी । मन में चिंता रखकर विठाई को धीरज देने का काम करना था । यह तो काम शुरू था । लेकिन समय बीत रहा था । तब माँ का धैर्य टूट रहा था । आक्का को पीडा हो रही थी । प्रसूति जोखिम की थी । गाँव छोटासा देहात । दवापानी की कुछ सुविधा नहीं थी । तहसील के गाँव पहुँचने के लिए बैलगाडी के सिवा दूसरी कोई सवारी नहीं थी । भोजन का समय टल गया था तब तक आक्का बेहोश हो गयी थी । माँ की चिंता बढ गयी । आक्का पर आनेवाला संकट टलना चाहिए था । क्षण-क्षण बेचैनी बढ रही थी । हमेशा का दवापानी किया । गाँव में अनुभवी बूढी स्त्रियाँ एकत्र हुई । उनमें से किसी के पास प्रसूति के निश्चित उपाय थे । सभी उपाय हो गये । लेकिन प्रसूति का चिन्ह दिख नहीं पडता था । ऐसे समय देहात में एक ही उपाय शेष रहता है । वह है देव को गुहार लगाना, मनौती मनाना तथा भस्म लगाना । देव से गिडगिडाकर गुहार लगाकर कहना कि, 'इसे जिंदा रखो ।' घाडगे के घर में यही कठिण समय आया था । तभी माँ के हाथ ढीले पड गये । थरकनेवाले हाथ फिर एकत्र हुए । माँ ने सागरोबा से हाथ जोडे और उसने अपने मन से सागरोबा की प्रार्थना की - ''आक्का को जिंदा रखो, मेरे हाथ को यश दे । तुम्हारा स्मरण हमेशा करती रहूँगी ।''

१२ मार्च १९१४ । नियति का अनुग्रह विचित्र होता है । अव्यक्त रूप से वह कृपा करती है । माँ के मन में सागरोबा के प्रति अपार प्रेम । निष्ठा बहुत । रात के समय में उस अंधकार में, बडी शांति से सागरोबा को लगायी गयी गुहार सागरोबा तक पहुँच गयी ।  सागरोबा ने माँ की बात सुन ली । उसने माँ के हाथ को यश दिया । उस समय घाडगे के घर में एक बालक का जन्म हुआ । आक्का का कठिण हालत में से छुटकारा हुआ ।  माँ की आँखों में आँसू भर आये । आक्का अधखुले नेत्रों से आसपास देखने लगी ।  ढिबरी के प्रकाश में उसे कुछ नहीं दिख रहा था । लेकिन बालक की आवाज कान में आने लगी । उसे अच्छा लग रहा था । बच्चा और आक्का भी अच्छी थी । यह सब देखकर दाजीबा को भी अच्छा लगा । उनके घर में एक बच्चे का आगमन हुआ है ।  इससे उन्हें बहुत बडा आनंद हुआ ।