सामाजिक और धार्मिक परिस्थिति
सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ भी विषम एवं जटिल थीं । भारतीय समाज तो सदैव से ही रूढिवादी और परंपरानुगामी रहा है । धर्म तो भारतीय समाज की रीढ की हड्डी
है । अतः किसी भी क्रान्तिकारी परिवर्तन और सुधार के लिये वहाँ आकस्मिक अवकाश न था । स्त्रियों और शूद्रों का स्थान दासी और गुलामों के समान था । मनुद्वारा निर्धारित वणाश्रम धर्म, संयुक्त कुटुंब प्रथा, बालविवाह, बहुविवाह, सतीप्रथा, बालहत्या, पर्दा, श्राद्ध, स्त्रियों की अशिक्षा आदि का प्रचार था ।
इ.स. १९३७ तक भी इस स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ था । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पनपती चली गयी । भूमि कर की समाप्ती से कृषि योग्य भूमि जमीनदारों की निजी संपत्ति बन गई थी । न्याय का शासनसूत्र जो अब तक पंचायतों के हाथों में था, निकल कर जमीनदारों और न्यायालयों के हाथों में चला गया था । भूमि-स्वामित्व को लेकर पारस्परिक स्नेहसूत्र टूटने लगे । जनसंख्या वृद्धि किसानों के खेतों को विभाजित और विखंडित करने लगी थी । अर्थाभाव, अशिक्षा, अज्ञान और नवीन साधनों की अनुपलब्धि में किसान समय से लडता रहा । परिणामतः भारतीय समाज की अवस्था दयनीय हो गयी ।
ग्रामीण की भाँति नागरी जीवन भी अस्त-व्यस्त था । नगरों की हस्तकला और उद्योगों को विदेशी पूंजी चाट गयी । जमीनदार-कृषक, उद्योगपती-श्रमिक आदि वर्ग स्पष्ट देखे जा सकते थे । संपूर्ण भारत का ढाँचा चरमरा कर टूट रहा था । पश्चिमी शिक्षा के आगमन ने भारत में पश्चिमी शिक्षा का आरोपण किया । अंग्रेजी भाषा तथा रहन-सहन पर अधिक बल दिये जाने के कारण शिक्षित और सामान्य जनता के बीच खाई बढती चली गयी और 'सामाजिक संतुलन' विनष्ट हो गया । १९३१ तक भारत की ९२ प्रतिशत जनता अशिक्षित बनी रही ।
औद्योगिक विकास के कारण भी सामाजिक संबंध बडी तीव्रता से बदल रहे थे । संयुक्त परिवार टूटने लगे थे और विभक्त परिवारों का शिक्षित समुदाय सहज ही 'स्व' की ओर चेतन होने लगा था । गांधीजी के प्रभाव से छुआछूत और वर्णभेद दूर करने के काफी प्रयास हुए । नारी चेतना पर्याप्त प्रगतिशील थी । इ.स. १९२९ में प्रसिद्ध 'शारदा अॅक्ट' द्वारा शादी के लिए न्यूनतम आयु सीमा बढा दी गई । राष्ट्रीय आंदोलन और देश की गतिविधियों में नारियाँ खुल कर भाग लेने लगी, अतः इ.स. १९३०-३१ के अवज्ञा आंदोलन में नारियों ने प्रमुख भाग अदा किया था ।