यशवंतरावजी की माता विठाई
खानापूर तहसील के अन्तर्गत देवराष्ट्र नाम का गाँव है । रावजी घाडगे किसान थे । उनके लडके का नाम दाजीबा है । उनकी बहन विठाई बलवंतराव चव्हाण के साथ ब्याही गयी थी । उनके घर की परिस्थिति गरीबी की थी । फिर भी इसी हालत में विठाईने दिन बिताये । उसने रातदिन कष्ट किया और बाल-बच्चों को शिक्षा दी । ऐेसी कष्टप्रद हालत होनेपर भी उसने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाये । वह बडी स्वाभिमानी थी ।
बलवंतराव के दादा विटा में स्थायिक हुए थे । विटा में उनकी तीन-चार एकड खेती थी । जमीन सूखी । किसी तरह दो-पाँच बोरे अनाज आता था । बलवंतराव और विठाई ऐसे वैसे दिन बिता रहे थे ।
मेरे बडे बंधु को नौकरी मिलने के बाद वे कुछ दिन कराड में थे । उसके बाद उनका तबादला विटा में हुआ । परंतु यशवंतरावजी की माँ ने निर्णय लिया कि दोनों छोटों को लेकर वह कराड में रहेगी और उनकी शिक्षा पूरी करनी चाहिए । इस दृष्टि से उसने लिया हुआ निर्णय उनके जीवन को दिशा देने के लिए फायदेमंद हुआ, यह उन्हें स्पष्ट दिखाई दे रहा है और उसके निर्णय से यशवंतरावजी और उनका परिवार कराडवासी
हुआ । उसके बाद कराड से जो संपर्क आया, वह हमेशा का । वह गाँव उनका हो गया और वहाँ उनका कार्यक्षेत्र बन गया ।
यशवंतजी की माँ शाला में पढी नहीं थी । लेकिन शिक्षा का मोल (मूल्य) अपने मन में जानती थी । वैसे देखा जाय तो यशवंतरावजी के घर की गरीबी थी । फिर भी वह संस्कार से श्रीमंत थी । यही श्रीमंती अपने बच्चों तक पहुँचाने का उसका हमेशा का प्रयास होता था । 'देव अपने पीछे है' यही उसकी निष्ठा थी । इसलिए वह संकट काल में कभी डगमगायी नहीं । वह बच्चों को हमेशा धैर्य देती रही । बडी भोर में पिसाई पीसते समय -
''नहीं बच्चों डगमगाओ,
चंद्र सूर्य पर के जायेंगे मेघ...''
यह दिलासा देनेवाली ओवी उसके गोद पर सोकर यशवंतरावजी ने कितनी ही बार सुनी है ।
यशवंतरावजी की माँ उनके घर के सब लोगों की शक्ति थी । बच्चे क्या पढते हैं और क्या बोलते हैं, यह वह सुनती थी । परंतु उसे उस में भाग लेना संभव नहीं था । लेकिन उसे लगता था कि अपने बच्चे कुछ अच्छी बाते बोलते हैं, कुछ नयी बाते करते हैं । परंतु उसने बच्चों के कामों में या विचारों में कहीं भी रुकावट नहीं डाली । लेकिन एक बात सच है कि वह उनके लिए बहुत मुसीबतें उठा रही थी । बडे भाई की तनख्वाह कम । उस तनख्वाह से थाडा-बहुत परिवार के लिए भेज देते थे । शेष बातों के लिए यशवंतरावजी की माँ ने अपने बच्चों के लिए बहुत कष्ट उठाये । गणपतराव ने जब माँ के कष्टों की याद दिलायी, तब यशवंतरावजी का मन भर आया ।
माँ ने यशवंतरावजी से कहा - 'बाबा, तू पढता है, घूमता है, फिरता है - ये सब अच्छा है । लेकिन किसी बुरी बातों में न उलझना । हम गरीब हो तो अपने घर की श्रीमंती अपने बोलने-बर्ताव करने में है, प्रथाओं में है । यह बात हमेशा के लिए ध्यान में रख । तुम्हे किसी की नौकरी करना है तो मेरा कोई हर्ज नहीं । मैं कष्ट करके तुम्हारी शिक्षा पूरी करूँगी । लेकिन तू इस शिक्षा में लापरवाही होगी, ऐसा मत कर । तुम पढ गये, तो तुम्हारा दैव बडा होगा ।'