यशवंतरावजी की शिक्षा दीक्षा
यशवंतरावजी की पहली पाठशाला देवराष्ट्र की । गाँव की पश्चिम की तरफ ऊँची पहाडी पर एक तालाब के किनारे पर होनेवाले दो-तीन कमरों में शाला भरती थी । यशवंतरावजी की शिक्षा का श्रीगणेशा यहाँ ही हुआ था । वे केवल शाला में जाते-आते थे । उनका नाम शाला में दाखिल नहीं किया था । श्री. रामभाऊ जोशी ने 'यशवंतराव : इतिहासाचे एक पान' पृ. ११ पर लिखा है - 'यशवंतराव देवराष्ट्र पहुँच गये । फिर दाजिबाने वहाँ की शाला में यशवंतरावजी को दाखिल किया । यशवंतरावजी की चौथी तक की शिक्षा ननिहाल में देवराष्ट्र में हुई । कराड में यशवंतरावजी को तिलक हाईस्कूल में दाखिल किया गया ।'
सच बात यह है कि, यशवंतरावजी की मैट्रिक तक की सारी शिक्षा कराड में हुई । स्वातंत्र्यपूर्व काल में पहली इयत्ता को इन्फन्ट्री कहते थे । उस समय नगर परिषद की शाला को स्कूल बोर्ड की शाला कहते थे । घरवालों ने स्कूल बोर्ड की शाला क्र. १; ४ में यशवंतरावजी का नाम दाखिल किया । उनकी १२-३-१९१३ जन्म तारीख लिखी है । १५-५-१९१८ उनका नाम इन्फन्ट्री में दाखिल हुआ है । उनका नाम यशवंत बाला चव्हाण लिखा गया है । उनकी जात मराठा लिखी गई है । यशवंतरावजी नये रूप में स्कूल में दाखिल हुए थे । वे उस स्कूल में छठवी कक्षा तक पढे और उन्होंने ३१-५-२४ को वह स्कूल छोड दिया और स्कूल नं. २ में सातवी कक्षा में पढने के लिए गए और वे इसी स्कूल में से सातवी कक्षा उत्तीर्ण हुए और इस कक्षा को पहले व्ह.फा. भी कहा जाता था । स्कूल नं. २ में उनका रजि. नं. १८७ था । इस स्कूल के रजिस्टर में यशवंत बलवंत चव्हाण नाम लिखा है । वे इ.स. १९२७ में सातवी परीक्षा उत्तीर्ण हुए ।
इसके बाद वे इ.स. १९२७ में तिलक हाइस्कूल में दाखिल हुए । कराड के तिलक हाइस्कूल में एक वर्ष में तीन इयत्ता का कोर्स पास करने के बाद वे तिलक हाइस्कूल के विद्यार्थी बन गये । उस समय शाला की फीस मामूली थी । उस समय लाल पैसे को बडी कीमत थी । धनिक लोगोंके लडकों के लिए फीस का प्रश्न उपस्थित नहीं होता । क्योंकि उनके पास पैसे थे । पर इन दो बंधुओं को शाला की एक महिने की फीस देने के लिए घर में पैसा शेष नहीं रहता था । गरीबोंके लडके ढोरडंगर की रखवाली कर, गोबर एकत्र करे, गौशाला साफ करे, खेती की रखवाली करे, ऐसी ही सुखवस्तु समझे जानेवाले लोगों की भावना थी । इन लडकों के कष्ट के मुआवजे के रूप में शेष रहा हुआ बासी अन्न उन्हें देन का बडप्पन वे दिखाते थे । तिरस्कार तो उन लडकों को सुनना ही पडता था । गरीब का कोई लडका पढता है तो उसे फीस की मामूली मदद करने की बात तो दूर, फीस माफी के लिए कोई गरीब समाज में किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से गरीबी का सिफारिश पत्र माँगा तो उसकी बिदाई तिरस्कार से होती थी ।
तिलक हाइस्कूल में पढनेवाला यशवंत भी इस प्रकार के तिरस्कार में से छूटा नहीं । उस समय शाला में फीस माफी मिलाने के लिए किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से 'विद्यार्थी गरीब है' का शिफारिस पत्र लेना पडता था । ऐसे ही एक दिन यशवंत गाँव में एक खानदानी श्रीमंत के पास शिफारिस पत्र माँगने गया । चव्हाण परिवार गरीबी में दिन बिता रहा है यह बात उस प्रतिष्ठित व्यक्ति को मालूम थी । परंतु उसने गरीबीका शिफारिस पत्र देना इन्कार कर दिया और तिरस्कार के शब्द भी सुनाए । यह एक छोटीसी घटना, परंतु इस छोटी-सी घटना से यशवंत के मन को ठेंस पहुँची । गरीबों को स्वाभिमान नहीं होता, ऐसी ही उस प्रतिष्ठित व्यक्ति की भावना होगी । उन्हें शिफारिस पत्र नहीं मिला इसका उन्हें दुःख नहीं था, पर उन्हें दुःख था उस तुच्छ शब्द का । यशवंतरावजी के मन में इस घटना से टीस पैदा हुई । परंतु यह शल्य यशवंतरावजी ने अपने मन के कोने में रख दिया और वहाँ से निकल पडे । लेकिन उसने अपने मन में प्रतिज्ञा की शिक्षा की मदद के लिए किसी बडे आदमी के पास जाना नहीं चाहिए । जैसी भी परिस्थिति होगी वैसी परिस्थिति में शिक्षा लेनी चाहिए । उनके भाईबंद थे । लेकिन वे दूर खडे रहकर देख रहे थे । महाविद्यालयीन शिक्षा के समय भी उसने किसी के पास याचना नहीं की । लेकिन मित्र उनकी मदद के लिए तैयार थे । यशवंत पढे ऐसे कुछ मित्रों की इच्छा थी । उन में से सुखी-संपन्न एक मित्र ने यशवंत के उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी स्वयं स्वीकार ली । प्रारंभिक काल में शिक्षा में बाधाएँ आयी गरीबी की । इसके सिवाय उस समय हिंदुस्थान में जो राजनैतिक परिस्थिति थी और आंदोलन थे उस में भाग लेने की इच्छा होने पर भी उनके मार्ग में अनेक बाधाएँ थी ।