अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-१७

फिर यशवंतरावजी उत्तर देते थे - 'पत्थर की मूर्ति में ईश्वर हैं, ऐसा कभी भी नहीं मानता । परमेश्वर रूप में कोई व्यक्ति कहीं बैठी है और वह सब दुनिया चलाती है, ऐसा मेरा मत नहीं है । परंतु हमारी समझ में न आनेवाली एक शक्ति है । इसलिए उसका अस्तित्व मानना आवश्यक है । उसके बिना अनेक बातें सुलझायी नहीं जा सकती ।

ईश्वर है यह बुद्धिवाद से सिद्ध नहीं किया जा सकता, वैसे वह नहीं है, यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता । इसलिए जिस स्थानपर सैंकडो वर्षों समाजपुरुष नतमस्तक होता आया है, वहाँ नतमस्तक होना मैं श्रेयस्कर मानता हूँ । मंदिर में जाने के पीछे मेरी यही भावना है । इसी भावना से मैं तुलजापूर जाता हूँ, प्रतापगड जाता हूँ । इस में कोई अंधश्रद्धा नहीं है । परंतु यह करने से मेरे मन को एक प्रकार का समाधान मिलता है ।  यह बात मुझे स्वीकार करनी चाहिए ।

जिन्दगी में बहुत वर्षों दुःख की साथ करने पर दिलासा और दिलदार रहना यह ईश्वर की देन है । मेरी माँ का जीवन मुझे हमेशा दीपज्योति के समान लगता है । दिया जलता है उसके प्रकाश में मनुष्य घूमते-फिरते हैं । लेकिन अपना उपयोग लोगों को होता है यह उस ज्योति को, उस प्रकाश को मालूम नहीं होता । वह दीपज्योति का जलना माँ का था ।

गणपतराव को यह आंदोलन महत्त्वपूर्ण लगता है, यह बात उन्हें पसंद न आती थी ।  परंतु उन्होंने उसे परावृत्त करने का प्रयत्‍न नहीं किया । मुझ से कहा कि - 'तुम यह जो करते हो, क्या यह माँ को पसंद है ? इस विषय में तुम उससे बात कर लो ।'

यशवंतरावजी तो इस आंदोलन के संबंध में माँ से हर बात बोलते थे ।

'तुम्हारी शिक्षा में बाधा आयेगी, यह तो मुझे चिंता है ।' यह माँ ने यशवंतरावजी से जरूर कहा था । परंतु यशवंतरावजी जो करते हैं, उससे पीछे मोड लेने का प्रयत्‍न नहीं किया ।

उसने कहा - 'तुम गांधीजी का काम करते हो, तुम्हे 'ना' कैसे कहूँ । लेकिन तुम्हारा बडा भाई सरकारी नौकरी में है, वह नाराज नहीं होगा, इसका विचार कर ।'

उसका कहना सच था । यशवंतरावजी के बडे भाई जो सरकारी नौकरी में थे, उन्हे यशवंतरावजी का यह राजनैतिक काम बिलकुल पसंद नहीं था । उन्होंने यशवंतरावजी से स्पष्ट कहा था कि - 'तुम्हारे इस उद्योग से कभी भी मेरी नौकरी छूट सकती हैं । और हम सब अनाथ बन जायेंगे ।'

लेकिन यशवंतरावजी ने उनके बोलने की चिंता नहीं की और उन्होंने उनका काम जारी रखा । इससे स्पष्ट है कि यशवंतरावजी देशप्रेमी थे और उनका अंतिम ध्येय था देश को स्वतंत्र करना ।