अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार ९९

लेखक सामाजिक जिम्मेदारी रखकर लेखन करें । सपने में उडान भरनेवाले वास्तविक प्रश्नों की ओर आँखों पर पट्टी बाँधकर रह जाते हैं और सपना देखनेवाले समाज निर्माण करते हैं । एक प्रकार की सामाजिक गुमराही करते हैं । यह यशवंतरावजी को नहीं चाहिए था । सामान्य में सामान्य मनुष्य के प्रश्न, उनका दुःख, वेदना साहित्यिक अपने शब्दों में अभिव्यक्त करें । संभव हुआ तो वह दुःख दूर होगा यह देखें । साहित्यिक अभी तक भारत के कोने में का जीवन, विशेषतः जिनकी ओर साहित्यिक पहुँचा नहीं ऐसे आदिवासी, दलित, स्त्रीजीवन का वास्तव चित्रण करके अपने अमर साहित्य के द्वारा भारत में समाजजीवन और संस्कृति का दर्शन कराये । साहित्य धारदार शस्त्र है । वह शस्त्र की अपेक्षा अधिक परिणाम करता है । इसलिए तो यशवंतरावजी ऐसे साहित्य की निर्मिति की अपेक्षा करते हैं ।

यशवंतरावजी को लगता है कि जनजीवन समृद्ध करने के लिए लेखक अपनी कलम का उपयोग करें । इसके सिवा शास्त्रीय जानकारी और वैज्ञानिक संशोधन मराठी भाषा में हो ऐसा आग्रही विचार प्रकट किया है । 'ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में मूलभूत संशोधन हाथ में लेने का प्रयत्‍न जिस भाषा में होता है वही भाषा ज्ञान की भाषा हो सकती है ।'  यशवंतरावजी का यह विचार आज हमें स्वीकार करना पडेगा । ऐसे हुआ तो वह भाषा ज्ञानभाषा होगी । 'अमृतातेही पैजा जिंके' ज्ञानेश्वर का यह भविष्यकथन सच करना होगा तो शास्त्रीय जानकारी मराठी में उपलब्ध होनी चाहिए । तब ही अन्य भाषा में ज्ञानभंडार खींचकर लाने की शक्ति मराठी भाषा में निर्माण होगी ऐसा विचार उन्होंने व्यक्त किया था ।

साहित्य संस्कृति 'पॉवर हाऊस' बने । पॉवर हाऊस सर्जनशील है । वहाँ दूसरों का उचक्कापन नहीं होता । यह मंडल महाराष्ट्र का जीवन व्यापक, विस्तृत और क्रियाशील माध्यम बने ऐसी इच्छा यशवंतरावजी व्यक्त करते हैं । सारांश, यशवंतरावजी साहित्य की भाषा, संस्कृति, साहित्य, साहित्यिकों की ओर उदार दृष्टि से देखते हैं ।

यशवंतराव प्रतिभाशाली लेखक थे । 'शिवनेरीच्या नौबती', 'सह्याद्रीचे वारे', 'युगान्तर', 'ॠणानुबंध', 'भूमिका', 'कृष्णाकाठ' यह उनकी प्रकाशित ग्रंथसंपदा है । उन्होंने अलग अलग लेखकों के पुस्तकों को प्रस्तावनाएँ लिखी है । उत्कट अनुभूति का आविष्कार उनके साहित्य में दिखाई देता है ।

साहित्य समाजजीवन का दर्पण है । यह साहित्य उस काल के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक प्रवृत्ति का प्रतिबिंब होता है ।

साहित्य थर्मामीटर में पारे के समान संवेदनशील होना चाहिए । उनके मत से साहित्य की अंतिम प्रेरणा मानवी मूल्यों का एहसास कर देनेवाली चाहिए । यह तो उत्तम लेखक की कसौटी है । सच्चा साहित्यिक समाज से दूर नहीं रह सकता ।

यशवंतरावजी के पास सब साहित्यिक गुण थे । इन गुणों के आधार पर वे साहित्य के क्षेत्र में प्रचंड कार्य कर सकते थे । परंतु उनका संपूर्ण जीवन राजनिति में बीत गया । इसलिए उनके अंदर छिपे हुए लेखक को न्याय नही मिला ।

प्रा. ना. सी. फडके लिखते हैं कि - 'भावना में लबालब भरी हुई, प्रभावी भाषा से सजी हुई लेखन करनेवाली लेखनी सीदी-साधी नहीं है । श्रेष्ठ दर्जे के सच्चे साहित्यिक की है ।'  यशवंतरावजी की लेखनी का आस्वाद लेते समय ऐसा लगता है । यशवंतरावजी के रूप से महाराष्ट्र और भारत को एक प्रथम दर्जे का नेता मिला, पर उन पर पडे हुए नेतृत्व के बोझ से उन में जो श्रेष्ठ साहित्यिक था वह नेतृत्व के बोझ के नीचे दब गया था ।  इसलिए उनका कर्तृत्व प्रकट नहीं हो सका । इसका बडा खेद होता है ।

साहित्य के संबंध में यशवंतरावजी का दृष्टिकोन संपूर्णतः जीवनवादी था । वे खांडेकर के 'जीवन के लिए कला' इस भूमिका के समर्थक थे । साहित्य जनजीवन में से निर्माण होता है और जनजीवन का प्रतिबिंब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साहित्य पर और साहित्य का परिणाम जनजीवन पर पडता है । जीवन के विविध अंगों को स्पर्श करनेवाला साहित्य होना चाहिए इस दृष्टिकोन का उन्होंने समर्थन किया ।  

यशवंतरावजी ग्रंथप्रेमी, व्यासंगी वाचक थे । उनका खुद का समृद्ध ग्रंथालय था । भेट के रूप में आयी हुई पुस्तकें पढते थे । पढी हुई पुस्तकों का अभिप्राय लेखक के पास भेज देते थे । वाचक यह अपनी साहित्य क्षेत्र में प्राथमिक भूमिका यशवंतरावजी ने बडी निष्ठा से पार कर दी थी ।

यशवंतरावजी ने जीवनभर वाचन किया । बचपन से ही उनको पठन की रुची थी ।  इसलिए पढे हुए ग्रंथों की आस्वादक समीक्षा करने का सामर्थ्य यशवंतरावजी को प्राप्‍त हुआ था । प्रत्येक साहित्यप्रेमी आज के जनतंत्र युग में एक नम्र समीक्षक होता है ।  उन्होंने साहित्य के संबंध में किया हुआ यह विधान उनकी विलक्षण बुद्धि का प्रत्यय देता है ।

श्री. बाल कोल्हटकरने यशवंतरावजी को 'रसिकों का राजा' कहा हैं ।

ज्ञानदेव के समाधीस्थल के बाहर पीपल नामका पेड है, जिसे 'सोने का पीपल' कहते है ।  इस पीपल के नीचे 'ज्ञानेश्वरी' को आकार आया और मराठी साहित्य-सरिता बहने लगी ।  यशवंतरावजी के दरवाजे में रसिकता का पीपल है । इस पीपल के नीचे साहित्य का दरबार भरा है । यशवंतरावजी इस दरबार के नीचे हिरा बन गए है । नेता रसिक होना चाहिए । यशवंतरावजी प्रज्ञावंत राजनीतिज्ञ थे । वे उदार हृदयी रसिक थे ।