अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-७८

अक्तूबर १९६२ में भारत और चीन इन दोनों के बीच सीमा निश्चित करनेवाली 'मॅकमोहन रेषा' चिनी सेना ने लांघकर नेफा में अपर्याप्‍त साधनसामग्री होनेवाले अपने कुछ थाने पर हमले किये और उन थानों को उद्ध्वस्त कर दिया । उसके बाद चिनी सेना सीधे ब्रह्मपुत्रा नदी की घाटी में उतर आयी । इस आक्रमण से भारत सरकार को आश्चर्य का धक्का लगा । वास्तविक ऐसा हमला होने की सूचना तीन वर्षं पूर्व सरकार को दी थी ।  चीन नेफा में कुछ मुल्क अपना होने की बात कर रहा था और चीन वह मुल्क कभी भी मुक्त करने का प्रयत्‍न करेगा ऐसी सूचना सेना ने रक्षा मंत्रालय को अक्तूबर १९५९ में दी थी । पूर्व विभाग के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ एस.पी.पी. थोरात थे । उन्होंने स्वयं एक विस्तृत टिप्पणी सेना मुख्यालय की ओर भेज दी थी । प्रस्तुत टिप्पणी में संभाव्य चिनी योजना के संबंध में जानकारी देकर उस हमले का कैसा मुकाबला करना चाहिए इस संबंध में उनकी सिफारिसें दर्ज की थी । थोरात की टिप्पणी से सेवा मुख्यालय सहमत था और वह टिप्पणी कार्यान्विति के लिए रक्षा मंत्रालय की ओर भेज दी गयी । परंतु अभागे रक्षा मंत्री कृष्णमेननजी ने उस टिप्पणीपर प्रतिकूल अभिप्राय लिखकर उस टिप्पणी को दफ्तर में दाखिल कर दिया ।

श्री. थोरातजी की एक महत्त्वपूर्ण सूचना थी - 'नेफा, सेना के पूर्व विभाग की ओर सौंप देना चाहिए । उसकी जिम्मेदारी आसाम रायफल की ओर न हो । आसाम रायफल यह एक पुलिस दल है और उनके पास लडाऊ सामग्री नहीं है और उन्हें प्रशिक्षा (प्रशिक्षण) नहीं है ।' श्री. थोरात की सिफारिस भी खारीज कर दी गयी । क्योंकि रक्षा मंत्री का मत था - 'चीन भारत पर कभी भी आक्रमण नहीं करेगा ।' यह निवेदन करते समय उन्हें यह मालूम होना चाहिए था कि पिछले कुछ महिनों में चिनी सेनाने अनेक बार सीमाभंग किया था । रक्षा मंत्री मेनन और प्रधानमंत्री पंडित नेहरूजी ये दोनों 'हिंदी चिनी भाई भाई' इस घोषणासे इतने प्रभावित हो गये थे कि थोरात की सिफारिस के अनुसार कारवाई करने की बात उनके मन में भी नहीं आयी । लेकिन सीमाभंग के प्रकार बढते गये । इसलिए सभी अखबारवालों ने और संसद ने गंभीर दखल लेने की शुरुवात की ।  श्री. कृष्णमेननजी ने 'राष्ट्रीय सुरक्षितता' की दृष्टि से संसद में उत्तर देने से इन्कार कर दिया अथवा संदिग्ध उत्तर दिये । इसलिए संसदसदस्य संतप्‍त हुए और उन्होंने प्रधानमंत्री पर आलोचना का हमला किया । अन्त में रक्षा की दृष्टि से उन्होंने नेफा सेना के पूर्व विभाग की ओर सौंप दिया । परंतु नेफा की रक्षा के लिए सेना की टुकडियाँ धीमी गतिसे जा रही थी तब तक १० अक्तूबर १९६२ को चीन ने हमला किया । अपनी रक्षा-व्यवस्था इतनी अपर्याप्‍त थी कि चिनी सेनाने नेफा से आधा मुल्क अपने कब्जे में लिया । इसलिए संपूर्ण देश ने श्री. कृष्णमेननजी के इस्तीफे की माँग की । प्रधानमंत्री ने श्री. मेननजी का समर्थन करने का बहुत प्रयत्‍न किया । परंतु सारा देश क्षुब्ध हो उठा था । यह देखकर प्रधानमंत्री को लोगों के मत के सामने अपनी गर्दन झुकानी पडी ।  परंतु मेननजी के बाद कौन, यह प्रश्न था । बदनाम हुआ रक्षा विभाग स्वीकार कर अपना राजनीतिक भविष्य धोखे में डालने के लिए कोई भी ज्येष्ठ व्यक्ति उत्सुक नहीं था । ऐसे समय प्रधानमंत्रीजी ने दृढता से सुज्ञ निर्णय लिया । उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री. यशवंतराव चव्हाण को रक्षा मंत्री पद की जिम्मेदारी स्वीकार करने की बिनती की । इस सुज्ञ निर्णय के संबंध में पंडितजीका अभिनंदन करना चाहिए । उसके साथ ही अपने राजनीतिक भवितव्यका विचार न करते हुए प्रधानमंत्री की मदद के लिए चले जानेवाले यशवंतराव चव्हाण का भी अभिनंदन करना चाहिए ।

नवंबर १९६२ में वे दिल्ली गये और धैर्य नष्ट हुए सेना की और नापसंद रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी स्वीकार ली । सेना में मनोधैर्य पुनः निर्माण करना यह अपना आद्य कर्तव्य है और सेना और रक्षा मंत्रालय के बीच होनेवाले संघर्षों के कारणों को निपटाना यह अपना मुख्य कर्तव्य है, यह बात यशवंतरावजी के ध्यान में तुरंत आयी । अपने पूर्व मंत्री का उद्दाम स्वभाव और अहंमन्य वृत्ति यह असंतोष का मूल है, यह उन्होंने पहचान
लिया । इस बारे में यशवंतरावजी का स्वभाव बिलकुल विरुद्ध था । उन्होंने अपने सौजन्यपूर्ण व्यक्तिमत्त्व से और सुसंस्कृत वृत्ति से दिल्ली के राजनीतिक जीवन पर अपनी छाप डाल दी । रक्षा मंत्रालय में अभ्यासू वृत्ति और विद्वत्ता इन गुणों के कारण यशवंतरावजी के बारे में आदर था । सेना के सभी स्तर पर उन्हें मान था । क्योंकि साधारण जवान की अपेक्षा उन्हें लडाई की अधिक जानकारी है, ऐसा दावा उन्होंने कभी नहीं किया । उन्होंने अपने कौशल से और संयम से सेना और रक्षा मंत्रालय को नजदीक लाया ।