अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-६६

लोककला के प्रति रुचि

यशवंतरावजी का जीवन सर्वस्पर्शी था । उनके सद्गुणों के अनेक पहलू थे । वे अभिजात और शास्त्रीय संगीत के जैसे रसिक थे वैसे ही वे भावगीतों के प्रेमी थे । नाटय के प्रति उनकी बडी रुचि थी । कभी कभी वे महाराष्ट्र की कला अर्थात लोकनाट्य भी रसिकता से देखते थे । सर्वसामान्य जनता की प्रिय लावणी भी कभी कभी देखते थे । वे चित्रकला का भी आस्वाद लेते थे ।

सब की चिंता

दौरे पर होते समय साहब साथ आये हुए सब की स्वयं पूछताछ करते थे । क्या किसीने खाना खाया कि नहीं ? क्या किसी को कुछ कम पडा है ? इन सब बातों की वे पूछताछ करते थे । इसलिए सिपाही से लेकर अधिकारियोंतक लगता था कि साहब अपने कुटुंबप्रमुख है । श्री. अनंत शेटेजी साहब के साथ जलगाँव दौरेपर गये थे । साहब रेल से जलगाँव से बम्बई वापस जानेवाले थे । स्टेशनपर उनहोंने सबकी पूछताछ की थी । श्री. शेटेजी एक तरफ खडे थे । साहबने शेटेजी से पूछा - 'अब बम्बई कैसे जाओगे ?'  तब उनके निजी सचिव श्री. श्रीपाद डोंगरेजी साहब ने कहा - 'उन्हें मैं मेरी गाडी देता हूँ ।  उसमें से वे बम्बई आ जायेंगे।'

कोयनानगर के समारोह में साहब का भाषण ध्वनिमुद्रित करने के लिए श्री. अनंत शेटेजी गये थे । साहब का भाषण समाप्‍त होने पर वे सब वाई गये । वे सब तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री के घर में ठहरे । शेटेजी ने तर्कतीर्थजी को साहबजी का ध्वनिमुद्रित भाषण सुनाया । वह सुनकर तर्कतीर्थजीने उद्‍गार निकाले - 'वाह ! एकदम अप्रतिम भाषण !'

'मंगल देशा पवित्र देशा, महाराष्ट्र देशा, प्रणाम घ्यावा माझा हा श्री महाराष्ट्र देशा' यह गीत साहबजी को बहुत अच्छा लगता था । शेटेजी ने वह गीत साहबजी को अनेक बार सुनाया ।

जनसामान्य लोगों के विषय में आकर्षण

श्री. राजाराम मानेजी कहते हैं कि मेरा गाँव कराडसे केवल दो मील पर होने से यशवंतरावजी हमेशा हमारे गाँव आते जाते थे । उन्होंने अपने 'कृष्णाकाठ' में 'कार्वे गाँव' का उल्लेख किया है । उस समय वे साइकिलपर से कार्वे गाँव आते थे । तब मैं पाँचवी-छठवी कक्षा में पढता था । उस समय १९४६ का चुनाव हुआ । उस समय आठ रुपये खेत की लगान भरनेवाला और सातवी पास हुए व्यक्ति को मतदान का अधिकार था ।  उस समय प्रौढ मतदान पद्धति प्रचलित नहीं थी । उस समय सर्वश्री यशवंतरावजी चव्हाण, पु. पां. उर्फ बाबूरावजी गोखले, के. डी. पाटीलजी और व्यंकटरावजी पवार ये काँग्रेस के उम्मीदवार थे । मतपत्रिका पर उनके क्रमांक १, ३, ४ और ८ थे । तब हमने घोषणा की थी - 'एक, तीन, पाँच, आठ, हमारे मेंबर यही चार ।'  उस चुनाव में साहबजी अधिक मतों से विजयी हुए । और फिर वे गृहविभाग के पार्लमेंटरी सेक्रेटरी हुए ।  सर्वसाधारण दृष्टि से एकाध आदमी देहात में से शहर में चला जाता है तो वह साफा बाँधनेवाले आदमी को भूल जाता है । परंतु साहबजी की बात अलग थी । वे साफेवालेकों कभीं नहीं भूले । १९६५-६६ की बात थी । साहबजी के करकमलोंद्वारा गोरेगाव के शास्त्रीनगर वसाहत का उद्घाटन था । उस समय मेरे पिताजी बम्बई में थे । साहबजी रक्षामंत्री थे । दादा हार लेकर मेरे पत्‍नी को लेकर सभास्थानपर गये । वे कडी सुरक्षा के कारण आगे नहीं जा सके । इतने में साहबजी का ध्यान दादा के साफे की ओर गया उन्होंने एक इन्स्पेक्टर को उन्हें आगे ले आने के लिए कहा । फिर दादाने उनके गले में हार डाल दिया । उन्होंने पूछा कि यहाँ कब आये ?

एक चुनाव दौरे की याद है । सातारा मतदार संघ में म्हसवड की सभा देर रात में हुई ।  ठंडक बहुत थी । एक बूढी स्त्री स्टेज की ओर आने के लिए चेष्टा कर रही थी । परंतु कोई भी उसे आगे जाने नहीं देता था । इतने में साहबजी का उसकी ओर ध्यान गया ।  बूढी स्त्री यशवंतरावजी के पास आयी । उसने फटे हुए कपडे में बांधकर लायी हुई बाजरे की रोटी, मक्खन और चटनी साहबजी के आगे रख दी और कहा कि - 'बाबा ! आधी रात हो गयी थी । कभी खाना खाया होगा किसे मालूम ? बूढी की इतनी रोटी खा ।'  और अचरज की बात ! साहबने स्टेजपर ही उस बूढी की रोटी खायी ।

आज इस याद से मन बेचैन हो जाता है । और लगता है कि सामान्य मनुष्य को बडे लोगोंका ऐसा स्नेह कहाँ मिलेगा ?