द्विभाषिक के मुख्यमंत्री
संयुक्त महाराष्ट्र के संबंध में उनकी भूमिका स्वच्छ थी । इस के साथ ही उनकी नेहरूनिष्ठा वैचारिक स्वरूप की थी । पं. नेहरूजी को वे भारतीय संस्कृति का प्रतीक मानते थे । १९५७ का चुनाव होने के बाद फिरसे यशवंतरावजी मुख्यमंत्री बने ।
जुलै १९६१ में पानशेत और खडकवासला बाँध फूटकर पुणे शहर जलमय हुआ । इन शहरों की अपरिमित हानी हुई । यशवंतरावजी तुरंत पूना गये । यशवंतरावजीने परिस्थिति का अनुमान लगाया और मदद पहुँचायी । मदद कार्य के लिए स. गो. बर्वेजी की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की । बाढ के बाद १२ दिनों में इस आपत्ति की जाँच के लिए न्या. बावडेकर कमिशन नियुक्त किया । लेकिन थोडे ही दिनों में बावडेकर ने आत्महत्या की । यशवंतरावजी सरकार पर आलोचना का तूफान उठा । उन्होंने आलोचना का उत्तर दिया और न्या. नाईक की अध्यक्षता में दूसरा कमिशन नियुक्त किया । यशवंतरावजी का यह जो विकासकार्य चल रहा था इसी बीच यह समस्या खडी हुई थी । यशवंतरावजीने अपनी कार्यकुशलता से यह समस्या सुलझायी ।
काँग्रेस की प्रचंड विजय
फरवरी १९६२ में महाराष्ट्र विधान सभा का चुनाव हुआ । यशवंतरावजी के नेतृत्व में काँग्रेस पक्ष की प्रचंड विजय हुई । यशवंतरावजी फिर मुख्यमंत्री हुए । यशवंतरावजी की लोकप्रियता शिखर तक पहुँची । लोग उन्हें 'प्रति शिवाजी' के नाम से संबोधित करने लगे । उन्होंने लोगों से कहा - 'मैं एक कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधी हूँ । शिवाजी नहीं, प्रति शिवाजी भी नहीं । मुझे फँसाओं मत, तुम भी फँसो मत ।' पंडित जवाहरलाल नेहरूजी ने जाहिर सभा में यशवंतरावजी के राजकारोबार का गौरव किया । सर्वोदयवादी लोकनायक जयप्रकाशजी नारायण के अनुसार 'यशवंतरावजी देश में सर्वोत्तम मुख्यमंत्री है ।'
सोलापूर में 'सुशील रसिक सभा' इस संस्था का उद्घाटन करते समय ना. यशवंतरावजी चव्हाण ने जुलै १९८४ में किये हुए भाषण में कहा - 'साहित्य में राज्यकर्ताओं का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ऐसे कहा जा रहा है । लेकिन राजनैतिक कार्यकर्ताओं को साहित्य में रुचि होगी और यदि वे साहित्य के क्षेत्र में आये तो क्या बिगडेगा ?'
महाराष्ट्र में आज वैचारिक लेखन का अभाव दिखाई देता है । उस विषय में खेद व्यक्त करते हुए मा. यशवंतरावजीने आगे कहा - 'मराठी सारस्वत विविध वाङ्मय प्रकार से समृद्ध हो और मराठी भाषा संपन्न हो इसलिए एक व्यापक वैचारिक बैठक की अब बहुत आवश्यकता है ।'
सिंहासनपर आरूढ हुई अपनी मराठी भाषा में ओजस्वी, प्रभावी छटपटानेवाली साहित्य कृतियों को आकाश तक पहुँचने के लिए गरूड झेप अब फिर से लेनी चाहिए ।
शस्त्र की अपेक्षा शब्द और लेखन अधिक प्रभावशाली होती है । यह दुनिया बहुत कठिन है यह ध्यान में लेना चाहिए । एक कवि की कविता मुझे याद आती है । कवि कहता है कि - 'धज्जिया ओढकर सोना बेचने के लिए बैठा तो चिडियाँ भी पास नहीं आयेगी । परंतु सोना ओढकर धज्जियाँ बेचने को बैठा तो भीड नहीं हटेगी ।' ऐसी अवस्था आज हुई है । इस अवस्था को दूर करने के लिए साहित्यकारों को प्रयत्न करना चाहिए ।