जनतंत्र के समर्थक
यशवंतरावजी मूलतः जनतंत्र के समर्थक थे । सत्ता का विकेंद्रीकरण करना आवश्यक है । क्योंकि सामान्य मनुष्य को उस में शामिल होने का मौका देना चाहिए । जब ऐसा मौका दिया जाय तो वे सामाजिक प्रश्न सुलझा देंगे । क्योंकि उन्हें सामाजिक प्रश्नों की जानकारी होती है । सत्ता के विकेंद्रीकरण का सूत्र कृति में लाने की दृष्टि से जिला परिषदों के संदर्भ में उन्होंने अपनी यह भूमिका प्रस्तुत की ।
जिला परिषद के द्वारा ग्रामीण नेतृत्व निर्माण करने की यशवंतरावजी की यह अपेक्षा बहुत बडे अनुपात में यशस्वी हुई यह बात हमे निश्चित रूप से माननी पडेगी । महाराष्ट्र के अनेक जिला परिषद में से तैयार हुए तरुण विधान सभा में, संसद में और अनेक स्थानों पर जा सके और अच्छे काम कर सके, इसलिए वे राज्य स्तर पर मंत्री का काम करते समय चमक गये । यशवंतरावजी की यह बडी विजय थी ।
महाराष्ट्र में कारखाने या अन्य सहकारी आंदोलन बडे पैमाने पर बढ गये । इनमें सभी का सहयोग, सभीका समान अधिकार यह नीति बडे पैमाने पर स्वीकृत की गयी । इसका सारा श्रेय यशवंतरावजी की पुरोगामी विचारधारा को है ।
तिलक भवन की बैठक में १९६४ में बैंको का राष्ट्रीयीकरण होना चाहिए, यह प्रस्ताव यशवंतरावजी की प्रेरणा से महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस समिति ने एकमत से संमत किया
था । प्रत्यक्ष रूप से उसका निर्णय १९६९ में हुआ । भारत में वह भूमिका सबसे पहले महाराष्ट्र ने यशवंतरावजी के नेतृत्व में स्वीकृत की थी ।
महाराष्ट्र ने देश के प्रवाह में सतत रहना चाहिए ऐसा उनका दृष्टिकोन था । उनका यह दृष्टिकोन पंडित जवाहरलाल नेहरूजी के समय से चला आ रहा था । महाराष्ट्र को राष्ट्रीय मुख्य प्रवाह में रखने के लिए १९५६-५७ में उन्हें महाराष्ट्र के अनेक लोगों की नाराजगी सहन करनी पडी थी । उसी पद्धति से उनके कार्यकाल के आखिर भी 'अब हमे राष्ट्रीय मुख्य प्रवाह में जाना चाहिए', यह उनकी सुसंगत भूमिका थी । इसलिए यशवंतरावजी अपनी भूमिका का पुरस्कार करके आय काँग्रेस में चले गये । इस संबंध में उनकी आलोचना हुई । कुछ लोगोंने कहा कि - 'वे लाभ के लिए, कुछ कमाने के लिए गये है । कुछ प्राप्ति और लाभ की अपेक्षा से वे बहुत पल्याड गये थे । कुछ मिलेगा और कुछ लाभ होगा इसलिए वे इंदिरा काँग्रेस में गये ऐसा हेतुपूर्वक इलजाम लगानेवाला एक वर्ग है उसे यशवंतरावजी समझे ही नहीं थे ।'
यशवंतरावजी की प्रशासनकुशलता का अवश्य उल्लेख करना चाहिए । १९५६-५७ के समय राज्य में काँग्रेस पक्ष को नाममात्र बहुमत था । एक ओर सर्वश्री एस. एम. जोशीजी, उद्धवरावजी पाटील, आचार्य अत्रेजी जैसे धुरंधर नेता थे । फिर भी उन्होंने निर्विवाद रूप से काम चलाया । अत्यंत कठिन काल में यशवंतरावजीने देश का गृहमंत्री पद सँभाला । उसी समय अनेक राज्यों में अलग अलग पक्षों की सरकारे थीं । देश में अनेक समस्याएँ थीं । उसके साथ ही पूर्वीय राज्य का प्रश्न कठिन हुआ था । उस काल में वे प्रभावी संसदपटू के रूप में प्रसिद्ध हुए । वे अच्छे प्रशासक भी हुए । उन्होंने देश को स्वच्छ प्रशासन दिया । उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग किया ऐसा इलजाम विरोधी पक्ष के लोग भी नहीं लगा सके । प्रभावी प्रशासक के रूप में उनका लौकिक हुआ । नौकरशाही को विश्वास में लेकर वे काम करते थे ।
राज्यकर्ताओं को दूसरों का दृष्टिकोन समझ लेना चाहिए । अखबार में होनेवाली आलोचना से अथवा व्यासपीठ पर से होनेवाले हमले से घबराना नहीं चाहिए और मन में गुस्सा और शत्रुत्व की भावना न रखते हुए दृष्टिकोन समतोल और वृत्ति शांत रखनी चाहिए । इस भूमिका का यशवंतरावजी को तूफान की स्थिति में बहुत उपयोग हुआ । राज्य किस पक्ष का है, वह कौन चलाता है, इसकी अपेक्षा वह कैसे चलाया जाता है इसे बहुत बडा महत्त्व है । चालू काल संक्रमण का है, उसके साथ कसौटी का भी है । जनतंत्र को आव्हान दिये जा रहे हैं । इन आव्हानों का मुकाबला करनेपर भारतीय जनतंत्र बना रहेगा, बढेगा ऐसी यशवंतरावजी की श्रद्धा थी ।
एक दिन यशवंतरावजी ने अपनी याद बताते हुए कहा कि, मैं उस समय डिफेन्स मिनिस्टर था । लेकिन उस समय उस खाते का एक वरिष्ठ नेता हमेशा यशवंतरावजी को विरोध करता था । इसलिए वो त्रस्त हो गये थे । परेशान होकर एक दिन नेहरूजी के नाम पर यशवंतरावजी ने इस्तीफा लिखकर भेज दिया । पंडित नेहरूजीने यशवंतरावजी को रात के नौ बजे बुलाया । वे गये तब नेहरूजी का गुलाब के समान होनेवाला चेहरा सूर्यबिंब के समान हुआ । अपनी शेरवानी के जेब में से यशवंतरावजी का इस्तीफे का कागज फडफडाते हुए उन्होंने कहा - 'यह क्या बदतमीजी है ? मुझे इस्तीफा भेज देता है ? किसलिए ?' मैने उन्हें सब बताया । उन्होंने हँसकर कहा - 'मूर्ख है । वह जो नेता है न जो तुम्हे परेशान करता है, उसे रक्षा मंत्री होना था । इसलिए मैंने उसे तुम्हारे खाते में भेज दिया । मुझे कह देता तो मैं सब निपटा लेता । लेकिन इसके आगे ऐसा इस्तीफा भेज देने की बेवकूफी मत करो' । उन्होंने मेरा इस्तीफा फाडकर मेरे मूँह पर फेंक कर कहा - 'फिर से ऐसी मूर्खता न करना ।' ऐसे थे प्रधानमंत्री पंडितजी ।