बम्बई केंद्रशासित
इसके बाद थोडे दिनों में दिनांक १६ जनवरी १९५६ को पंडित जवाहरलाल नेहरूने रेडिओपर भाषण करके बम्बई को केंद्रशासित रखने की बात जाहिर की । यह निर्णय जाहिर होते ही तुरंत दुसरे दिन ७ जनवरी को कन्नमवारजी और उनके साथियोंने स्वतंत्र विदर्भ का आंदोलन स्थगित कर दिया ।
जवाहरलालजी की उपर्युक्त घोषणा के बाद महाराष्ट्र काँग्रेस कमिटी की सभा पुना में हुई । उनके निमंत्रण से कन्नमवारजी और उनके साथी वहाँ उपस्थित हुए । बम्बई अलग करके महाराष्ट्र राज्य स्थापना की शुरूआत हुई थी । बम्बई के सचिवालय में दो बैठके हुई थी । इस अवसर का फायदा उठाकर कन्नमवारजीने सातारा, कोल्हापूर और सांगली जिले में दौरा किया और काँग्रेस कार्यकर्ताओं की सभाओं में भाषण किये । वहाँ अनेक लोगों ने कन्नमवारजी से कहा कि - 'आप नये हैं ? आप यशवंतरावजी के पीछे रहने से आप अपना और विदर्भ का भला नहीं कर सकोगे ।' सातारा के मुकाम में राजासाहब निंबालकरने कन्नमवारजी से पूछा कि 'तुम्हारी और तुम्हारे साथियों की नीति क्या
रहेगी ।' कन्नमवारजीने तुरंत उत्तर दिया कि - 'जहाँ यशवंतरावजी वहाँ मैं और मेरे साथी रहेंगे । फिर यशवंतरावजी अल्पमत में रहे या बहुमत में । क्योंकि अपनी और हमारी जात एक है, वह भारत और निष्ठावंतों की । यह रिश्ता हम सब को हमेशा के लिए एक सूत्र में जकडकर रखने के लिए होगा ।'
वे आये, उन्होंने देखा और जीत लिया । किसी के ध्यान में और मन में नहीं था । अचानक १० अगस्त १९५६ को विशाल द्विभाषिक बम्बई राज्य का बिल लोकसभा में पारित हुआ । इच्छा हो अथवा न हो, संसद का निर्णय हम सभी को स्वीकृत करना पडा ।
आगे तारीख १ नवंबर १९५६ को विशाल बम्बई राज्य की स्थापना हुई । यशवंतरावजी इस राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आरूढ हुए ।
द्विभाषिक राज्य यह भारत में प्रथम श्रेणी का राज्य है, ऐसी जो ख्याति हुई थी उसके लिए यशवंतरावजी ही कारण हुए । यह राज्य चलाने का कार्य अत्यंत कठिन एवं पेचीदा था । इस द्विभाषिक राज्य के मंत्रिमंडल में एक दूसरे के संबंध दृढ नहीं हो सके । अन्त में आपस के झगडे से यह राज्य टूट गया ऐसा किसी तरहका इलजाम यशवंतराजी ने अपने ऊपर आने नहीं दिया ।
अब द्विभाषिक राज्य का विसर्जन होगा इसलिए गुजराथी लोगों ने यशवंतरावजी पर गुस्सा निकाला लिया । वे यशवंतरावजी को वाहियात बोलने लगे ।
एक ओर विदर्भ का प्रश्न तो दूसरी ओर दोनों राज्यों के बँटवारा के प्रसंग में गुजराथी बांधवों की अनुमति प्राप्त करने के संबंध में विचारविनिमय चल रहा था । बीच बीच में मतभेदों की चिनगारियाँ उठती थी, पर यशवंतरावजी ने गुस्सा आने नहीं दिया, तीव्रता बढने नहीं दी ।
द्विभाषिक बम्बई राज्य का विसर्जन होने का प्रश्न निर्माण हुआ तब से लेकर अन्त तक यशवंतरावजी ने मोरारजीभाई के साथ अच्छे संबंध रखे थे । मोरारजी भाई के निवास स्थान में रहकर यशवंतरावजी मोरारजीभाई से कहते थे - 'अब हम गुजराथी भाई-भाई अलग हो रहे हैं, हमे आशीर्वाद दो । पिताजी की हैसियत से हमारी जायदाद का उचित विभाजन करने के लिए आप हमे साहाय्य कीजिए ।'
दूसरों का विश्वास संपादन कर काम करवा लेने की कला बहुत कठिन होती है । पर यशवंतरावजी इस में सफल हुए । बाहर के कुछ लोग यह समस्या हल होने के समय बाधाएँ पैदा करने लगे । उनका कहना था कि यह प्रश्न १९६२ के चुनाव के बाद लेना चाहिए । पर यशवंतरावजी ने ऐसा मौका आने नहीं दिया । सारी बातचीतें सफल की, यशस्वी बनायी ।
महाराष्ट्र राज्य निर्मिति के संबंध में अनेक पक्षों वा दलों के प्रयत्न हुए हैं । इस में जनता का विशेष श्रेय भी है । लेकिन यशवंतरावजी जैसा कुशल, प्रसंगावधानी, विचारवंत नेता न होता तो आज का यह महाराष्ट्र इतना जल्दी देख सकते कि नहीं इसका शक होता है ।
सैंकडों वर्षों से विदर्भ और मराठवाडा का पश्चिम महाराष्ट्र से यातायात नहीं था । इन दो महान खाडिया और (समुद्र का वह भाग जो तीन ओर खुश्की से घिरा हो । खलीज नदी का वह भाग जिस में समुद्र के ज्वार का पानी पहुँचता हैं । नदियों के कारण विदर्भ के ९० लाख लोग और मराठवाडा की ५० लाख महाराष्ट्रीयन जनता अलग पडी थी । अत्यंत प्रयत्न से और परिश्रम से महाराष्ट्र के महान तज्ज्ञ इंजिनिअरने - यशवंतरावजी ने हाल ही में दो बडे सेतु बाँधकर महाराष्ट्र की साडेतीन कोटी जनता एकत्र लायी । सभी दृष्टि से परस्पर यातायात की व्यवस्था की । इसलिए यशवंतरावजी नागपूर को कोलंब पूल के लिए आ सके । महाराष्ट्र स्थिर, मजबूत करने के लिए हम सब को प्रयत्नों की चरम सीमा तक प्रयत्न करना चाहिए । फिर ऐसे कितने भी पत्थरों के मिट्टी के पूल और रास्ते जगह-जगह तैयार हो जायेंगे और जनता के सुख में वृद्धि होगी । अब तुम्हारी समस्या तो हमारी समस्या समझकर एकता की भावना हम में निर्माण होनी चाहिए ।
स्वातंत्र्यप्राप्ति तक बम्बई सांस्कृतिक, धार्मिक और आंदोलन का श्रेष्ठ और प्रमुख केंद्र स्थान था । उस समय के बहुभाषिक बम्बई राज्य के राजधानी में यशवंतरावजी एक पार्लमेंटरी सचिव का पद स्वीकारने के लिए गये । उन्होंने पार्लमेंटरी सचिव के पद का स्वीकार किया । यशवंतरावजी का स्वभाव ऐसा था कि जो सहज मिलता है, उस में संतोष मानना चाहिए । शासन के मुख्य प्रवाह में प्रवेश मिल गया है, इसलिए उन्होंने उस में ही संतोष माना ।