यशवंतरावजी जब इस घटना का विचार करते हैं । तब उन्हें पार्लमेंटरी सेक्रेटरी का पद दिया गया था, इसलिए यह उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा था । उनका काम और उनकी जानकारी की तुलना से यह मामूली काम है, ऐसी उनकी भावना हुई थी ।
वहाँ चर्चा किये बिना हम वहाँ से निकले । यशवंतरावजी ने बालासाहेबजी खेर के आभार माने । उन्होंने दोनों मित्रों के भी आभार माने ।
श्री. बालासाहेबजी शिंदे को यशवंतरावजी की मनःस्थिति समझी होगी । बाहर आने के बाद उन्होंने यशवंतरावजी से कहा,
'यशवंतरावजी, गलती करोगे । इन्कार मत करो । तुम्हारी फुरसत से क्यों न हो, पर आकर उपस्थित रहो ।'
बाबासाहेब का यशवंतरावजी पर बहुत लोभ था । यशवंतरावजी ने उनके भी आभार माने और टॅक्सी करके माधवाश्रम में आये । तब तक के. डी. भी वहाँ वापस आये थे । यशवंतरावजी ने सब वृत्तान्त उन्हें कह दिया । श्री. के. डी. ये बडे व्यवहारी मनुष्य थे । यशवंतरावजी ने उनके पास उनकी भावना स्पष्ट की । तब उन्होंने कहा, 'तुम्हारी भावना मैं समझ सकता हूँ । पर बाबासाहेब शिंदे ने जो सलाह दी है, उसे मानकर चलना चाहिए ।'
यशवंतरावजी को उनकी सभी बातें समझ में आ रही थी । पर पसंद नहीं लग रही थी । यशवंतरावजीने कहा,
'मुझे इस संबंध में विचार करना चाहिए । मैं जल्दी से हाजिर नहीं रहूँगा । हम अब वापस जायेंगे ।'
श्री. बालासाहेबजी खेर ने नामों की घोषणा की । उस में यशवंतरावजी का नाम पार्लमेंटरी सेक्रेटरी के रूप में प्रसिद्ध हुआ और इस प्रसिध्दी के वातावरण में यशवंतरावजी कराड पहुँचे ।
श्री. गणपतरावजी की कुछ निराशा हुई दिख पडी । यशवंतरावजी ने उनसे - मुझे क्या लगता है, वह कह दिया । उन्होंने सलाह मान लेनी चाहिए, ऐसा मत व्यक्त किया ।
उसके बाद दस दिन यशवंतरावजी कराड में थे और अन्य मित्रों से चर्चा कर रहे थे । सभी का मनोदय था - 'मुझे जाना चाहिए ।'
सौ. वेणूताईजी के मन में क्या है, यह जानने का प्रयत्न यशवंतरावजी ने किया ।
सौ. वेणूताईजी ने कहा - 'आज तक इतने बडे कठिन निर्णय लिये, तब आप के मन की द्विधा अवस्था नहीं हुई थी । फिर अब ही ऐसा क्यों ?'
यशवंतरावजी इसका अर्थ समझ गये ।
अन्त में यशवंतरावजी ने अपनी माँजी से पुछा - तब माँजी ने कहा, 'मुझे तुम्हारी राजनीति समझती नहीं । लेकिन तुम्हें कुछ नया काम करने का मौका आया है, तो अब इन्कार मत करो ।'
यशवंतरावजी के लिये यह वरिष्ठ न्यायालय का आदेश था । इसलिए यशवंतरावजीने बम्बई जाने का निर्णय लिया ।
दूसरे दिन शाम के समय सबसे बिदा ली । और फिर माँजी के पैरों पर मस्तक रखकर यशवंतरावजी घर के बाहर निकल पडे और बम्बई पहुँचे ।
यशवंतरावजी मन में विचार करने लगे कि - 'मेरे जीवन में बडा बदल हुआ है । कृष्णा के किनारे मैं बडा हुआ, घूमा, फिरा, संघर्ष किया । अनेक नये काम किये, मित्रता की, अनेक मनुष्यों से संबंध प्रस्थापित किये । बडे अभिमान का आनंद का काल था । अब मैं कृष्णा का किनारा छोडकर नये क्षितिज की ओर जा रहा हूँ । अब वह क्षितिज रंगबिरंगा दिख रहा है । लेकिन प्रत्यक्ष वहाँ पहुँचने तक क्या वैसा रहेंगा ? यह बात कौन जाने ?'
यशवंतरावजी ऐसे विचार के धुन में थे । ठीक उसी समय उनके जिले के रिपब्लिकन पक्ष के एक नेता रावसाहेबजी मधाले यशवंतरावजी के पास आये और कहा, 'कहाँ जा रहे हो ?'
यशवंतरावजीने उनसे कहा –
‘बम्बई । नया काम करने के लिए ।’
उन्होंने आनंद व्यक्त किया और कहा,
'तुम बहुत अच्छे दिन यह नया काम स्वीकार कर रहे हो ।'
यशवंतरावजीने कहा,
'मैं पंचांग देखकर नहीं जा रहा हूँ । लेकिन आज कौनसा महत्त्वपूर्ण दिन है ?'
उन्होंने कहा - 'आज १४ अप्रैल है । डॉक्टर आंबेडकर का आज जनम दिन है ।'
यशवंतरावजीने कहा -
'बहुत अच्छा संयोग है ।' मेरे ध्यान में न होते हुए यह दिन चुना गया । यह मेरे जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है, यह मैं मानता हूँ ।
और हमारी डेक्कन क्वीन खंडाली की घाटी में से एक के पीछे एक सुरंग छोडते हुए तीव्र गति से आगे जा रही थी ।
कभी अंधकार, तो कभी प्रकाश में हमारी सफर आगे बढ रही है । क्या अगले जीवन का यह प्रतीक तो नहीं है ?