अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-२४

पठन और वैचारिक विकास

यशवंतरावजी को पढने की बडी आदत थी । पहले पहली दिनकरराव जवलकर ने चलाया हुआ वृत्तपत्र (कैवारी) पढा था । उसके बाद भाऊसाहब कलंबेने यह वृत्तपत्र कराड में प्रकाशित करके चलाया । उस में वे अपना विचार प्रकट करते थे कि - 'बहुजन समाज में जो युवा पीढी है, उन्हें सत्यशोधकीय विचार और संस्कार देने के उद्देश्य से उन्हें नयी पद्धति से शिक्षा देने की आवश्यकता है ।' उसके लिए उन्होंने एक कोठी किराये पर ली और वहाँ उन्होंने 'विजयाश्रम' नाम की संस्था शुरू की थी । यशवंतरावजी के बंधु गणपतरावजी विद्यार्थी की हैसियत से उस आश्रम में रहते थे । उन पर उस आश्रम के संस्कार हुए थे । उनके भाई यशवंतरावजी से बातचीत करते थे । इसलिए उनके मन पर सत्यशोधकीय और ब्राह्मणेतर आंदोलन के संस्कार होते रहते थे ।

दिनकररावजी जवलकर ने एक सभा में भाषण किया था । उस भाषण में उन्होंने ब्राह्मण समाज पर आलोचना की थी । उसी सभा में 'देशाचे दुश्मन' (देश के दुश्मन) पुस्तक बाँटा जा रहा था । उसकी एक प्रत यशवंतरावजी ने प्राप्‍त की और पढ ली । इसलिए वे मन से और विचार से पूर्ण बदल गए ।

यशवंतरावजी सातवी कक्षा में पढ रहे थे तब से उन्हें वृत्तपत्र पढने की आदत लगी थी ।  परंतु उस समय यशवंतरावजी को जो वृत्तपत्र पढने के लिए मिलते थे वे थे - 'विजयी मराठा' और दूसरा 'राष्ट्रवीर' । विजयी मराठा बेलगाँव से प्रसिद्ध होता था । राष्ट्रवीर पूना से प्रसिद्ध होता था । ये दोनो वृत्तपत्र ब्राह्मणेतर आंदोलन का पुरस्कार करनेवाले थे ।  यशवंतरावजी पूना से प्रसिद्ध होनेवाला 'मजूर' और बम्बई से प्रसिद्ध होनेवाला 'श्रद्धानंद' वृत्तपत्र पढते थे । इसलिए उनके मन पर व्यापक संस्कार होने लगे । वे उस समय पूना का 'स्वराज्य' वृत्तपत्र पढते थे । वे 'हरिजन' भी पढते थे ।

जब उन्होंने तिलक हाइस्कूल में प्रवेश किया तब उनकी पठन की आदत पक्की हुई ।  वहाँ उन्होंने हरिभाऊ आपटे के उपन्यास पढने की शुरुआत की । जहाँ से पुस्तक मिलती, वहाँ से वे लेते और पढते । उन्हें जो अच्छा लगता था वे उसे पढते थे । श्री केलुसकर द्वारा लिखा गया 'छत्रपती शिवाजी महाराज का चरित्र' यशवंतरावजी ने मन लगाकर  पढा । वैसे उन्होंने शिवराम परांजपे कृत 'काल' में प्रसिद्ध होनेवाले 'निबंध' पढने का प्रयत्‍न किया । केलुसकर की मराठी भाषा सरल और साधी थी । उनकी भाषा यशवंतरावजी की समझ में आती थी । लेकिन शिवराम पंत की मराठी भाषा कठिन थी ।  उनकी मराठी संस्कृतमय थी । उन्हें संस्कृत नहीं आती थी । उस में जो सौंदर्य स्थल थे वे उनकी समझ में नहीं आते थे लेकिन विचारों का सूत्र ध्यान में लेकर उन्होंने अपना पठन शुरू रखा ।

इस पठन के बाद यशवंतरावजी के मन पर और विचारों पर अलग संस्कार हुए थे ।  यशवंतरावजी ने अपने भाई गणपतरावजी से पूछा कि - 'बहुजन समाज को पढना चाहिए, यह तो सच है । लेकिन वह किसलिए ? केवल नौकरी के लिए कि देश के लिए विशेष कुछ करने के लिए ?' यशवंतरावजी के ये सरल, सीधे प्रश्न थे । इस पर गणपतरावजीने कहा कि - 'केवल ब्राह्मणों का द्वेष किया जाना चाहिए ऐसा आग्रह नहीं है । लेकिन सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र में इन लोगों ने अन्य समाज के लोगों को बहुत बडी यंत्रणाएँ दी है । इससे मुक्ति चाहिए कि नहीं ?' एक दिन गणपतरावजीने यशवंतरावजी को महात्मा फुलेजी का चरित्र पढने के लिए दिया । शायद यह मराठीमें पहला चरित्र होगा ।