अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-२३

और एकाएक सौ. वेणूताईजी की तबीयत बिगड गयी है ऐसा संदेश फलटण से आया ।  यशवंतरावजी को पारिवारिक जिम्मेदारी महसूस हुई । इसलिए उनकी अस्वस्थता बढ गयी । वे टॅक्सी से फलटण आये । मन की द्विधा अवस्था में बीमार वेणूताईजी को धैर्य देते समय वैद्यकीय उपचारों का विचार विनिमय हो रहा था । परंतु तब तक यशवंतरावजी फलटण में आये है यह खबर पुलिस को मिल जाती है और फिर पुलिस आकर यशवंतरावजी को गिरफ्तार करती है ।

फलटण के कारागृह में जाने पर दस महिनों का उनका भूमिगत आंदोलन समाप्‍त हो जाता है । सौभाग्य से कारागृह में भूमिगत आंदोलन आदि के बारे में विस्तृत जानकारी पूछी नहीं जाती, यह देखकर यशवंतरावजी को आनंद हुआ । वे आठ-दस दिन फलटण, उसके बाद उन्हें सातारा के जेल में भेज दिया ।

सातारा से यशवंतरावजी को कराड ले गये । वहाँ उन पर मुकदमा दायर करने का निर्णय किया गया । यशवंतरावजी ने तांबवे गाँव में जो सभा की थी, उस में उन्होंने जो भाषण दिया था उसके लिए उनपर इलजाम लगाया और उन्हें छः महिनों की कडी कैद दी गयी । उसके बाद उन्हें येरवडा के जेल में भेज दिया । सजा पूरी होने पर उनकी रिहाई हुई । इ.स. १९४४ में जनवरी महिने में वे कराड वापस आये और उनके भाई गणपतराव भी रिहाई होने के बाद कराड वापस आये थे ।

सलाह-मशविरा जारी था । दरमियान दो सप्ताह बीत गये । वेणूताईजी का संदेश आने पर वे दोनों भाई फलटण गए और प्रतिबंधक स्थानबद्धता के आदेश के अनुसार पुलिस ने उन दोनों को गिरफ्तार किया । उसके बाद उन्हें येरवडा जेल में भेज दिया । वे वहाँ तीन महिने थे । इन तीन महिनों में उनका विशेष पठन नहीं हुआ । कार्यकर्ताओं के सहवास में पठन की अपेक्षा अनुभवों की और विचारों की लेन-देन अच्छी हुई । उनकी तबीयत भी अच्छी नहीं रही । केवल पारिवारिक व्यथा से यशवंतरावजी बहुत व्यथित हुए लगते हैं ।  वे अपने निवेदन में कहते हैं - 'इन तीन महिनों में मेरी तबीयत अच्छी नहीं रही ।  मकान की और से गणपतराव की तबीयत का समाचार आता था । डॉक्टर से वे औषध पानी लेते थे और गृहस्थी चलाने का प्रयत्‍न कर रहे थे । मेरे मन में विचारों का संघर्ष शुरू हुआ था कि मैं मेरे परिवार को कितनी यातना दे रहा हूँ । दादा गये । गणपतराव गंभीर बीमारी से त्रस्त है । सौ. वेणूताई की तबीयत ठीक नहीं है । माँ बिना बोले सब सह रही थी । पर वह दुखी थी । उसने मुझसे बहुत अपेक्षाएँ की होगी । परंतु मैने उसकी कोई भी अपेक्षा पूर्ण नहीं की । मेरे मन में यह जो विचार था वह मैंने मेरे मित्रों से जेल में कह दिया था ।' यशवंतरावजी के विचार सुनकर उन्हें भी बुरा लगा था । वे भी क्या कर सकते थे । पारतंत्र्य था । सबकी अवस्था यशवंतरावजी जैसी थी । एक दूसरे के प्रति सहानुभूति दिखाना यही उनके हाथ में था ।