श्री चव्हान के नेतृत्व के विषय में सब से वैषम्यपूर्ण स्थिती, विदर्भ संलग्न द्विभाषी बम्बई के प्रारंभ और महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के पश्चात् भी, विदर्भ की समस्या है । श्री चव्हान ने यह सत्य कभी नहीं छुपाया, कि अपने विचारों में वे संयुक्त महाराष्ट्रवादी रहे है और है । यही अवस्था महाराष्ट्र के सभी राजनीति की है, चाहे वे किसी मी पक्ष के हो । महाराष्ट्र की अपनी दृष्टि से यह वैचारिक कोटि अस्वाभाविक नहीं । सत्य यह है कि महाराष्ट्रवाले तत्त्वत: यह समझने में असमर्थ है कि मराठी भाषी दो राज्यो की क्या आवश्यकता है, विशेषत: जब कि विदर्भ क्षेत्र बहुत बडा न हो । मराठी भाषी जगत में भूतपूर्व पूना के सांस्कृतिक महत्व की अपेक्षा सभी लोक वर्तमानमें बम्बई को महाराष्ट्र का हृदय-स्थल या संगठनात्मक प्रतीक मानते है और उनकी धारणा है कि उनका लाभ, विदर्भ सहित अन्यान्य क्षेत्रो को प्रचुर मात्रा में मिलेगा । वे भाषा के विकास, शिक्षण क्षेत्र की सुविधाए एवं खाद्य एवं आर्थिक कारणों से, परस्पर विकास के लिये महाराष्ट्र की सम्पूर्ण ईकार्ई ही उपयुक्त मानते है । इन कारणों से व विदर्भ की परिस्थितियो को उस सूक्ष्मता से नही देख जाते, जो प्राय: बीच बीच की चिनगारियो से भिन्न रुप दर्शाती है । श्री चव्हाण का मानस इन्ही विचारो से प्रभावित है और इस कारण वे प्राय: विदर्भ की परितुष्टि की भाषा का प्रयोग करते है, जो उनके अपने अंत:करण की भाषा है, यह मेरी विश्वास है । पिछले दिनों कुछ क्षेत्रो में उन पर यह आरोप लगाया गया था कि वे "नागपूर करार" को भी जानबूझकर टाल रहे है । परन्तु संभवत: परिस्थिती यह नहीं थी - उनकी अपनी दृष्टि में यह आवश्यक नही था और वे अपने ढग से विदर्भ की परितुष्टि का प्रयोजन हृदय में रखते थे । विदर्भ की विशिष्ट भावना की अधिक गहरी छाप अनुभव होने पर भी उन्होने नागपूर तीन महीने राजधानी रखने की घोषणा की और अन्यान्य उद्गार की प्रगट किये । अपनी दृष्टि एवं अपने ढंग से वे विदर्भ को आश्वस्त करने का निश्चित उद्देश्य रखते है, यह उनके भाषणो से पूर्णतया प्रगट है । यह अलग बात है कि विदर्भ के अनेक अवयव इस क्षेत्र की परिस्थितियों को भिन्न दृष्टि से देखते हो और इन दो दृष्टिकोणो में काफी अन्तर हो । विदर्भ महाराष्ट्र के नेतृत्व के लिये एक समस्या बनी रही. तो इसका दोष नेतृत्व को उतना नहीं. जितना दोनो क्षेत्रो की भिन्न पार्श्वभूमि को है । में निश्चित रूप से जानता हूं कि श्री चव्हान समस्या के मूल स्वरुप को समझने का अवश्य प्रयत्न करते रहे है और अपनी दृष्टि से योग्य उपचार का उन्हें ध्यान है । यह भिन्न बात है कि विदर्भ के सभी समूह उनकी नीति से सहमत न हो, अथवा कुछ उनकी नीति के प्रति शंकित हों, जो उक्त पार्श्वभूमि में आश्चर्य जनक नहीं ।
विदर्भ क्षेत्र में विदर्भवादियो के साथ व्यवहार में श्री चव्हाण को दिक्कतें अनुभव हुई है । विदर्भ के लिये सत्याग्रह प्रारंभ होतो समय उन्होने उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया, तो कुछ घटनाओ के बाद उनकी नीति में काफी कडाई दृष्टिगोचर हुई । ऐसी परिस्थितियों को सम्हालना वास्तव में एक पेचीदा कार्य है । परंतु उनकी नीति में कुछ अतिरेक अवश्य प्रतिबिंबित हुआ है । विदर्भ में पुलीस के अधिक मात्रा में प्रयोग एवं कई मामलों में प्रजातन्त्रीय मर्यादाओ से किंचित् आगे बढनेवाली नीति का इस सम्बंध में प्रमाण दिया जा सकता है । परन्तु, दुसरी ओर शिकायतो की अवस्था में उनका संशोधन करने का उचित मानस ही नहीं, बल्कि पर्याप्त साहस भी उन्होने दर्शाया है । इस दृष्टि से, श्री चव्हान के नेतृत्व में बल और संतुलन दोनो है । प्रजातंत्रीय प्रणाली के पोषक के नाते, जो विचार वे बलपूर्वक व्यक्त करते है, भविष्य में उन्हे इस दिशा में अधिक सतर्क अवश्य रहना होगा, कारण जन-नेता के नाते वे महसूस करेंगे कि विदर्भ की समस्या का अंतिम हल एकमात्र विदर्भ का अपना मुक्त मानस है ।