राजनैतिक जीवनका प्रारम्भ
हमारे प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूने अपने 'डिस्कवरी ऑफ इन्डिया' ग्रंथमें लिखा है कि, ''महात्मा गान्धीने काँग्रेस संगठनको जनतांत्रिक और समाज संगठनका विराट् स्वरूप प्रदान किया । महात्मा गान्धीके आगमन पूर्व भी काँग्रेस जनतांत्रिक ही थी, लेकिन तब उसकी मर्यादा केवल धनिक-वर्ग और पढे-लिखे लोगोंतक ही सीमित थी । जब कि महात्मा गान्धी उसमें किसान, मध्यमवर्ग और विभिन्न पेशेवाली सामान्य जनताको लाये धनिकोंकी काँग्रेसको दीन-दुखियोंका प्रतिनिधित्व करनेवाली संस्था बनाया ।''
पूज्य बापूके इस नये दृष्टिकोणसे सत्यशोधक समाजके जन्मदाता महात्मा फुलेका वर्षों पुराना स्वप्न साकार हो उठा । सन् १८८९ में बम्बईमें काँग्रेसका पाँचवा अधिवेशन हुआ । उस समयकी काँग्रेस और महात्मा गांधीकी काँग्रेसमें जमीन अस्मानका अंतर था । महात्मा फुलेसे न रहा गया । उन्होंने गरीब किसानका २० फीट ऊँचा अर्धनग्न पुतला तयार करवाया और उसे काँग्रेस अधिवेशनके भव्य द्वार पर खडा किया । पुतलेके एक हाथमें हंसिया था और दूसरेमें तख्ती, जिस पर लिखा हुआ था कि, ''काँग्रेस राष्ट्रीय संस्था नहीं हो सकती क्यों कि इसमें गरीब किसान और मेहनत कशों का एक भी प्रतिनिधि नहीं है ।'' लेकिन पूज्य बापूने एक नया रंग ही भर दिया काँग्रेसके बनाव-सिंगारमें । परिणामतः सत्यशोधक समाजका नेता वर्ग संतुष्ट नजर आ रहा था और दिन-ब-दिन वह काँग्रेस की ओर अधिकाधिक मात्रामें आकृष्ट हो रहा था । इसमें श्री केशवराव जेधे जैसे अग्रगण्य थे । महाराष्ट्रके कोने कोनेमें काँग्रेसका प्रचार और प्रसार धडल्लेसे होने लगा था । सामाजिक विषमताको हटानेके लिए उठा हुआ बवण्डर राष्ट्रीय-विचार-धारामें शमन हो गया ।
महाराष्ट्रकी राजनीतिमें कोल्हापुर एक देशी रियासत होने पर भी महत्वपूर्ण स्थान रखती थी । वहाँ पर सत्यशोधक समाज द्वारा संचलित आन्दोलनका जोर था । तत्कालीन कोल्हापुर नरेश छत्रपति श्री शाहू महाराजकी वृत्ति भी महात्मा फुलेके सत्यशोधक समाजकी नीति, सिद्धांत और नियमसे अनुकूल थी । अतः जिन लोगोंको दरबारी कार्य तथा प्रशासनसे दूर ठेल दिया गया था--वंचित कर दिया गया था । उन्हें, उन्होंने उत्तरदायित्व-पूर्ण स्थानों पर प्रतिष्ठित किया । शाहू महाराज अच्छी तरह जानते थे कि जिन लोगोंकी जिस स्थान पर नियुक्ति हुई हैं--शैक्षणिक दृष्टिसे वे योग्य न भी हों, लेकिन उनमें उस स्थान पर काम करने की क्षमता अवश्य है । उनकी प्रतिभा और मेधावी बुद्धि कुछ दिनोंके अनुभव के बाद प्रशासनमें उन्हें अवश्य पारंगत बना देगी । लेकिन छत्रपति का यह कार्य रियासत के शिक्षित वर्ग को फूटी आँखों भी न भाया । उन्होंने महाराजके विरुद्ध आवाज उठानी शुरू की । लेकिन उन्हें यह पता न था कि जिन्हें अपने जीवनमें पढाई-लिखाईका अवसर न मिला उन्हें राजकीय कार्योंमें समानताका साझीदार बनानेके लिए योग्य बनाना परमावश्यक हैं । आज भी जनतंत्रमें यही हो रहा है । हमारे देशके प्रगतिशील विचार-धाराके दल और नेतागण हरिजन, आदिवासी, अल्पसंख्यक एवं पिछडी जातिके प्रतिनिधियोंको हर स्थान पर काम करनेका अवसर दे रहे हैं ।
शाहू महाराजने सुविधा वंचित (unprivileged) लोगोंको राज्य-प्रशासन में केवल ऊँचे ओहदे ही नहीं दिये बल्कि युग-युगांतरसे शैक्षणिक, सांस्कृतिक एंव सामाजिक विकाससे पूर्णतया वंचित हुए ढोरोंका-सा जीवन बितानेवाले बहुजन समाजकी प्रगति और उन्नतिके हर संभव प्रयत्न किये । उन्होंने फीसकी सुविधा दी, स्कॉलरशिपकी योजना की और विद्यार्थियोंको रहनेके लिए निःशुल्क छात्रालय निकाले । उन्होंने यह सुविधा केवल अपनी रियासती प्रजा तक ही सीमित न रखी बल्कि कोल्हापुर रियासतके अलावा पिछडी जातिके सभी विद्यार्थी-विद्यार्थियोंके लिए यह सुविधा जारी रखी ।
यशवंतरावकी विद्यार्थी-अवस्थाका महत्वपूर्ण काल कोल्हापुरमें व्यतीत हुआ है । अतः सत्यशोधक समाजके प्रगतिशील कार्योंकी आदिसे अंत तककी जानकारी यशवंतरावको है और इसीलिए ऐसे कार्योंके प्रति प्रायः इनके मनमें अपनेपनकी भावना रहती है । यह सब होने पर भी इन्होंने अपनी काँग्रेसविषयक नीति और राष्ट्रीय विचारोंमें जरा भी परिवर्तन नहीं आने दिया । वे प्रायः काँग्रेसकी नीति और दृष्टिकोणसे बहुजन समाजकी समस्याओं पर विचार करते हैं और हल खोज निकालते हैं । उनकी इस राष्ट्रीय-निष्ठाका उत्कृष्ट उदाहरण है सन् १९२९ की कराड म्युनिसिपैलटीके चुनाव ! उस समय उन्होंने अपने अलौकिक धैर्य और उत्कृष्ट राष्ट्रभक्तिका उदाहरण पेश किया । उस चुनावमें उनके ज्येष्ठ बन्धु श्री गणपतराव एक उम्मीदवार थे । लेकिन काँग्रेस उनके विरुद्ध थी । अतः यशवंतरावने अपने ज्येष्ठ-बन्धु के विरुद्ध घर-घर जाकर प्रचार किया और उन्हें चुनावमें हराया । यशवंतरावकी अद्भुत ध्येयनिष्ठामें बन्धु-प्रेम रोडा अटका न सका ।