मूसलाधार बारिशके बाद जब सूर्यनारायणकी प्रथम किरण धरतीके पंखों पर सवार हो किलकने लगती है तब जो खुशी सृष्टिके लोगोंको होती हैं वह खुशी-- वही प्रसन्नता ज्ञानोबाकी नौकरी लग जानेसे निराधार चव्हाण-परिवारको हुई । विशेषतः विठाबाईके आनन्दका पारावार न रहा । फिर भी चार भाई-बहन और विधवा माँके जीवन-निर्वाहकी समस्या इतनी सरल न थी जो आसानीसे हल हो जाए । 'विटा' में चव्हाण-परिवारकी खेती-बाडी थी और बलवंतराव दूसरे किसानोंकी साझीदारीमें भी थोडा-बहुत कमा लेते थे । साथ ही विटासे कराड तबादला हो जाने पर भी समय पर अपना हिस्सा बिना किसी रोक-टोक ले आते थे । अतः घर-गिरस्तीका गाडा येन केन प्रकारेण चलता रहता था । लेकिन कराडमें यह बात न थी । विटा एक मामूली कस्बा तहसीलका थाना था जब कि कराड शहर था। यहाँ मँहगाईका बोलबाला था । जीवन-मानका स्तर ऊँचा था । फिर भी वे गुजारे जितना अवश्य प्राप्त कर लेते थे । लेकिन बलवंतरावकी मृत्युके पश्चात् चव्हाण-परिवारको भला कौन दाद दे ? सभीने आँख आडे कान कर दिये । और ज्ञानोबा ठहरे मामूली नौकर । इतनी कम तनख्वाहमें पाँच सदस्यीय परिवारका भरण-पोषण कराड जैसे शहरमें होना बिलकुल असंभव था । विठाबाईको यह चिंता रात-दिन खाये जा रही थी, फिर भी उस अबला नारीने धीरज न छोडी और हिम्मतसे काम लिया ।उन्होंने ज्ञानोबा और गणपत तथा राधाबाईको अपने पास कराडमें रखकर नन्हे यशवंतरावको ननिहाल भेज दिया।
बलवंतरावकी अकाल मृत्युके बाद सारे परिवारकी जिम्मेदारी विधवा माँ विठाबाई और किशोर ज्ञानोबाके उपर अनायास आ पडी । उन्होंने अपने अल्प वेतनमें भी भाई-बहनोंके लालन-पालन तथा विधवा माँकी सेवा-शुश्रूषामें कोई कसर उठा न रखी । और अपना सारा जीवन भाई-बहनके संवर्धनमें लगा दिया । उन्होंने गणपतराव, यशवंतराव और राधाबाई पर ममताके पंख फैला दिये । इनके सुखको अपना सुख आरै इनके दुःखको अपना दुःख माना। बचपनसे ही किसान होनेके कारण वे कडी मेहनत करते समय अघाते न थे । उनका मन गंगा-सा निर्मल और हृदय हिमालय-सा विराट विशाल था । ज्येष्ठ भ्राताके उदार हृदय, मृदु स्वभाव और स्नेहने गणपतराव, यशवंतराव और राधाबाईको स्वर्गस्थ पिताकी भूलकर भी याद आने न दी ।
कराडमें आने पर भी चव्हाण-परिवारके रहन-सहनमें कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ । बल्कि विटाकी तरह सामान्य स्थिति ही बनी रही और आज जब कि परिवारका एक सदस्य राजनीतिक क्षितिज पर सोलह कलाओंसे विभूषित हो अपनी प्रखर ज्योतिसे सर्वत्र प्रकाश फैला रहा है तब भी ज्ञानदेव उनका परिवार और विधवा माँ विठाबाई सामान्य स्थितिके किसानोंके बीच रहकर सारा जीवन बिता रहे हैं । ज्ञानोबाकी पारिवारिक-संस्कृति कृषक-समाजकी होनेके कारण कराड जैसे आधुनिक शहर और सुधरे हुए वातावरणमें आ बसने पर भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया ।
यशवंतरावके मंझले भाई गणपतरावका शिक्षण, ज्ञानोबाने अत्यंत कष्ट और आपत्तियोंके बीच मेट्रिक तक कराया । वे कर्तव्य-परायण महत्वाकांक्षी गृहस्थ थे । उन्होंने अपनी अधूरी पढाईका प्रायश्चित छोटे भाईको सर्वोच्च शिक्षण दिलाकर करनेका दृढ निश्चय किया । गणपतरावका काल, बीसवीं सदीकी संस्कृतिकी ओर वेगसे कदम बढाते जन-मानसका संक्रमण-काल है । उन्होंने भावी जीवनको खेती-बाडीपर निर्भर रखना मूर्खता समझकर शिक्षण को जीवन-साधन माना । भारतका ग्रामीण समाज आज भी अनपढ है, नाना प्रकारकी बुराइयोंसे ग्रस्त है, और कुरीति तथा दकियानूसी ख्यालोंके पाटमें पिस रहा है । उसे अगर ऊपर लाना है, सेठ-साहूकार और स्वार्थी पढे-लिखोंके चंगुलसे अगर उसे मुक्त करना है तो बहुजन समाजको मृतावस्थासे जगाना होगा, जनता-जनार्दनमें संजीवनी शक्तिका संचार करा, उसे अपने अधिकारोंके प्रति सजग और सचेष्ट करना होगा । तभी मानवताका मंत्र फूका जाएगा । मानव मानवसे प्रेम करने लगेगा । 'बिना सहकार नहीं उद्धार' वाली सूक्तिका जयघोष होगा । और यह सब तभी हो सकता है जब शोषकोंकी पकडमें कराहते बहुजन समाजको जागृत किया जाए।
इसी सिद्धांतको लेकर महात्मा फुलेने 'सत्यशोधक समाज' की नींव डाली थी, जिसकी आवाज महाराष्ट्रके कोने कोनेसे निनादित हो रही थी । लोग अपने अधिकार और कर्तव्यके प्रति आकर्षित हो रहे थे । सुप्तावस्था मिटकर सर्वत्र जागृति आ रही थी । गणपतराव भी इस आन्दोलनसे अलग न रह सके । महाराष्ट्रमें जेधे बंधु, जवलकर आदि मराठा कार्यकर्ता हाथमें हाथ मिलाकर इस आन्दोलनको दृढ करनेमें लगे हुए थे । उनकी निगरानीमें गणपतराव भी विद्यार्थी दशासे ही सक्रिय भाग लेने लगे । आगे चलकर गणपतरावके क्रांतिकारी-जीवनके छींटें यशवंतरावके जीवन पर भी उडते गये और सामाजिक क्रांतिकी विचार-धारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधीके स्वाधीनता आंदोलनसे समरस होकर शुद्ध राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्तकर बहने लगी, जिस पर यशवंतरावकी जीवन नौका मन्थर गतिसे सही रास्ते पर बढ चली ।
यशवंतरावकी पारिवारिक-संस्कृति अशिक्षित होने पर भी पारिवारिक-परिधिसे बाहर उनका जीवन-पुष्प उच्च संस्कृतिके वातावरणमें पलकर पूर्ण विकासकी ओर बढ रहा था । ठीक वैसे ही भारत-भू पर घटनेवाली दैनंदिन घटनाओंका प्रतिबिंब भी समय-समय पर कराडके सामाजिक-जीवन पर उमटता रहता था जिसका परिणाम भी यशवंतराव पर होता रहता था । फलतः कृष्णाके जल और कराडकी धरतीका यशवंतरावकी सफलता, प्रतिभा, वक्तृत्व-शक्ति और कर्तव्य-परायणतामें खास हाथ है--यह कहना अतिशयोक्ति न होगी ।