जब वे मेट्रिकमें पढ रहे थे तब उनके एक शैशवके मित्र श्री लक्ष्मण जोशीकी जेलमें मृत्यु हो गई । यशवन्तरावको काफी सदमा पहुँचा और गर्व भी हुआ ऐसे राष्ट्रसेवी मित्रके अमर बलिदान पर । उन दिनों यशवंतराव सख्त बीमार थे । पर अपनी बीमारीकी तनिक भी परवाह किये बिना जोश ही जोश में एक निबंध लिख डाला, जिसका शीर्षक था 'ध्येयवादी योध्दा' । लेखमें जोशीकी अजरामर देशभक्तिकी भूरि भूरि प्रशंसा की गई थी । अपने शालेय जीवनमें उन्होंने 'शराबके दुष्परिणाम' विषयको आधार मानकर एक कहानी भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने जेष्ठ बन्धुमें विद्यमान शराबकी लतसे एक परिवारके उखडनेकी करुण-कहानी पेश की थी । सन् १९३० के पश्चात् कराड और उसके आसमन्तमें प्रख्यात बने छत्रपति 'शिवाजी मेला' की पद्य-रचना खुद यशवंतरावने ही की थी । इसी जमानेमें उन्होंने मेले और नाटकोंमें छोटी-मोटी भूमिकाएँ भी की । विद्यार्थी दशामें यशवंतरावने बालकविके रूपमें अच्छी ख्याति प्राप्त की । उनके काव्य और पद्योंमें तत्कालीन सरकारकी ताण्डव-लीला, भारतीयोंकी दुर्दशा और गुलामीके सींखचोंसे मुक्त होनेके लिए भारत-माताके विविध प्रयत्नोंकी झांकी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती थी । उनकी पंक्ति-पंक्तिमें राष्ट्रीय विचारोंका वह सैलाब जोर मारता था कि पाठक-वर्ग स्वयं उसमें गोते लगाकर राष्ट्रीयताके वातावरणमें घुल-मिल जाता था । देशके लिए दीवाना बन जाता था । आज अगर यशवंतराव राजनैतिक अखाडेमें न होते तो निःसन्देह मराठी भाषाके सुप्रसिद्ध कवि और साहित्यकार बन जाते ।
शालेय जीवनमें यशवंतरावको व्यायाम का भी बडा शौक था और आजकी तेजस्वी मुखमुद्रा ओर मजबूत बांधा उसीका ज्वलंत उदाहरण है । व्यायामका शौक उन्हें अपने ज्येष्ठ भ्राता गणपतरावसे उत्तराधिकारमें मिला । उन्होंने ही आपको अखाडेमें उतरना सिखाया और दंगल-कुश्तीका रसिया भी ! लेकिन राष्ट्रीय कार्योंमें अत्यधिक व्यस्त रहनेके कारण वे व्यायामपटु और साहित्यिक के रूपमें यश और कीर्ति अर्जित न कर सके पर उनमें निर्मल स्वभाव, निर्भय वृत्ति स्पष्टवादिता और एक साहसी के सभी गुण तथा काव्यदृष्टि और एक कविकी भावुकता अवश्य आ गई है, जिसके दर्शन समय-समय पर होते रहते हैं ।
कईं विद्यार्थियोंका ध्येय परीक्षामें अधिकाधिक मात्रामें गुणांक प्राप्त करना और प्रथम श्रेणीमें उत्तीर्ण होना होता है, ताकि अच्छी से अच्छी नौकरी आसानीसे प्राप्त हो, भावी जीवन सुखी और समृद्ध बने । ऐसे विद्यार्थीका झुकाव अध्ययन-मनन और विद्याका रहस्य जान लेनेके बजाय रटू तोतेके ज्ञानकी ओर होता है । परीक्षा होते ही वह पुस्तकों से मुँह मोड लेता है और व्यावहारिक जीवनके चक्रमें जुट जाता है। लेकिन यशवंतरावका जीवन-ध्येय ऐसा न था । वे विद्याको मानव-जीवनका प्रधान ध्येय मानते थे। विद्या बिना मनुज पशु समाना--यह उनका ब्रीद वाक्य था । समाज, जाति एवं देशमें फैली विषमताकी आँधी को दबाना है तो संस्कारके साथ ज्ञानोपासना भी परमावश्यक है । वे प्रायः विषयकी नींवमें पहुंचकर गहराईसे उसका तौल-माप निकालकर अपने निर्णय निश्चित करते हैं । तभी तो यशवंतराव की वाणीमें हमें सजीवताके दर्शन होते हैं और लोगोंको उनकी वाणी तथा वृत्तिसे वैचारिक स्फूर्ति मिलती है ।
शालेय-जीवनकी भाँति यशवंतराव का कॉलेज-जीवन भी यशस्वी रहा है । कहते हैं कि 'विद्या विनयेन शोभते' यह सूक्ति यशवंतराव पर सोलह आने बारह रती खरी उतरती है । उन्होंने अपनी पैनी बुद्धि, अद्भुत प्रतिभा, निर्भीक मनोवृत्ति, विवेकी वर्तन और विनयी स्वभावसे कॉलेजके अधिकारियों तथा प्राध्यापकोंका प्रेम और कृपा संपादन की थी । मराठीके सुप्रसिद्ध उपन्यासकार प्राध्यापक ना. सी. फडकेकी 'तर्कशास्त्र' पढानेकी अद्भुत शैलीसे वे बेहद खुश थे । और उसका ज्वलंत उदाहरण यह है कि उन्होंने अपने कॉलेज-जीवनमें कभी भूलकर भी प्रा. फडकेका पिरीयड नहीं छोडा । डॉक्टर बालकृष्णके प्रिय विद्यार्थियोंमेंसे वे एक थे । आर्थिक-विषमताके कारण वे यथासमय कालेज-फीस दे नहीं सकते थे । किंतु डॉक्टर बालकृष्णको यशवंतरावकी राष्ट्रीय वृत्ति और देशकी आजादीके लिए मरमिटनेकी तमन्नासे आंतरिक लगाव था; अतः फीसके कारण उन्हें कभी परीक्षामें रुकना न पडा । इंटरके ऐन परीक्षाके समय सख्त बीमार होने के कारण कॉलेजकी टर्म भर नहीं सके--अतः बहुत दुःखी हुए । लेकिन डॉक्टर बालकृष्णने विशेषाधिकारका उपयोग कर उन्हें परीक्षामें सम्मिलित होनेकी अनुमति प्रदान की ।