सन् १९४६ के सार्वजनिक निर्वाचनके समय यशवंतराव बम्बई विधान सभा के लिए काँग्रेसी उम्मीदवारीके रूपमें खडे रहे और सफल बने । नये मंत्रीमंडलमें उन्हें गृहविभाग का संसदीय मंत्री बनाया गया । उस समय उनके कंधों पर राज्य-प्रशासनकी कडी जिम्मेदारीके साथ ही साथ काँग्रेस दल संगठनका भी महत्वपूर्ण दायित्व था; जिसे उन्हें न्याय देना पडता था । फलस्वरूप उनका अधिक समय दौरेमें ही जाता था । काँग्रेस दल और प्रशासक काँग्रेस सरकारकी नीति और कार्योंका प्रचार एवं प्रसार महाराष्ट्रके कोने कोनेमें उन्हें करना पडता था । एक दृष्टिसे वे सरकार, काँग्रेस दल और सामान्य जनताको परस्पर जोडनेवाली कडीके समान थे । उन पर दुहरी जिम्मेदारी थी - काँग्रेस दलका संगठन और सरकारी काम-काज । इन सबके बावजूद भी उन्होंने अपना वाचन-व्यासंग नहीं छोडा । प्रति माह वे नियमित रूपसे नई पुस्तकें खरीदते और उनका अध्ययन-मनन करते रहते । महीनेमें कमसे कम एक पुस्तक खरीदना तो उनकी आदत-सी बन गई थी । संसदीय मंत्री बन जाने पर उन्होंने खास तौरसे अंग्रेजी साहित्य और राजनैतिक विषयोंका सखोल अभ्यास किया । अंग्रेजी साहित्यमें प्रकाशित अद्यतन नई पुस्तकें भी उनकी पैनी दृष्टिसे नही छूटीं । इस दरमियान उन्होंने राजनीतिके विविध ग्रन्थोंको उलट-पुलटकर विषयको आत्मसात् करनेका भरसक प्रयत्न किया । अत्यधिक कार्यव्यस्तताके बावजूद भी वे आधा-पौना घंटा जरूर पढते रहते थे । विशाल द्विभाषिकके मुख्य मंत्री बन जाने पर भी उनका पठनका चस्का न छूटा और आज उनकी निजी लायब्रेरीमें हजारोंकी संख्यामें उत्तमोत्तम ग्रंथ-राशि संग्रहित हैं ।
ज्ञानोपासना बहुत हो गई । मैंने बहुत कुछ आत्मसात् कर लिया है । अब नये ज्ञानकी कोई जरूरत नहीं - ऐसी भावना यशवंतरावके मनमें कभी उदित न हुई । बल्कि मेरी ज्ञानसाधना अभी अधूरी है । मुझे खूब-खूब सीखना है । नये ज्ञानकी परिसीमाको गाँठना है - आदि विचार उनके मनमें हरदम उठते रहते हैं और जब कभी वे शान्तचित्त बैठे होते हैं तब प्रायः सोचा करते है, ''क्यों न मै गुरुदेव श्री रवीन्द्रनाथ ठाकूरके शान्तिनिकेतनकी तरह एकाध आश्रम निकाल कर स्नातक विद्यार्थी-वर्गको राजनीतिक, सामाजिक एवं तत्वज्ञानकी संजीवनी पिलाता रहूँ ?'' वे वाचन करते हैं केवल ज्ञानार्जनके लिये नहीं बल्कि मनोरंजनके लिये भी । वे अपने प्रवचनोंमें प्रायः उत्कृष्ट उदाहरण देते हैं । तभी तो कईं बार उनके भाषण साहित्यरससे परिलुप्त होते हैं । यशवंतरावमें बसे आद्य साहित्यकारके कारण ही महाराष्ट्रके विभिन्न दृष्टिकोणवाले साहित्यिक भी उनके मित्र एवं हितैषी हैं और उनका मराठी साहित्य जगतमें अच्छा-खासा सम्मान है । उसका उत्कृष्ट उदाहरण है विदर्भ साहित्य-सम्मेलनमें उनका उद्घाटकके रूपमें आना । उस समय उन्होंने कहा : ''केवल शब्द-लालित्यके ही पीछे न पडते हुए ज्ञानेश्वर, तिलक और आगरकरजीकी उज्ज्वल साहित्य परंपराको लक्ष्यमें लेकर, मराठी साहित्यकारोंको मानवतावादी साहित्य-सृजन करना चाहिए । अगर हम अपने मराठी साहित्यके पिछले सात-आठ सदियों पहलेके इतिहासको देखें-परखें तो पता लगेगा कि संत ज्ञानेश्वर जैसों की साहित्य-संपदा मानवतावादी रही हैं - उन्होंने जो उडान भरी उसकी बराबरी आज तक कोई कर नहीं सका है । संत-साहित्य मराठी भाषाकी अमूल्य निधि है । और इसी साहित्यिक-विचार धाराके दर्शन हमें लोकमान्य तिलक, न्यायमूर्ति रानडेके साहित्यमें होते हैं । शब्दोंमें लालित्य हो, लेकिन लालित्यके साथ ही मानवतावादी प्रेरणा होना भी अत्यावश्यक है । समाजको प्रगतिके पथपर ले जानेकी शक्ति साहित्यमें होनी चाहिए और ऐसी शक्ति तथा मानवतावादी दृष्टिकोण जिस साहित्यमें नहीं वह साहित्य नहीं बल्कि कुछ और ही है ......। शब्दकी शक्ति और सामर्थ्य अतुलनीय है । उसमें अणुबम और उदजन बमसे भी करारी शक्ति है । आजके विश्वके कदम एक ओर जहाँ प्रगति और उन्नतिके शिखरकी ओर बढ रहे हैं - वहाँ दूसरी ओर विनिपातकी ओर भी अग्रसर हो रहे हैं । जहाँ राजनैतिक नेता विश्वके कदम प्रगति, सुख और शांति की ओर बढानेमें असमर्थ सिद्ध होंगे वहाँ साहित्यकार अपनी भाषा और वाणीके बल पर विश्वको परम मांगल्य, जनकल्याण, आबादी और आमदनीकी ओर ले जानेमें सफल सिद्ध होंगे । साहित्यकारको किसी एक भाषा या राज्यकी मर्यादामें न रह कर सदैव संचार करते रहना चाहिए । उन्हें नवमानवतावादी, सुख और शांतिका प्रेरक, परम मांगल्य और जनकल्याणकारी, बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय-साहित्यकी निर्मितिमें अपने आपको लगा देना चाहिए ।''
यशवंतरावका उपरोक्त उद्घाटन-भाषण पढकर उनके अभिन्न हृदय मित्र तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशीने महाराष्ट्रका एक महान् वैचारिक नेता और साहित्यसेवक के गौरवोद्गारसे उनकी प्रशंसा की थी । यशवंतरावके व्यक्तित्वका साहित्य-सेवा यह एक विलोभनीय पहलू है । कला और जीवनके प्रश्नको लेकर मराठीके साहित्यकारोंमें पिछले कितने ही समयसे विभिन्न विचार-प्रवाह प्रचलित हैं । कलाके लिए कला प्रतिपादित करनेवाले लेखक-वर्गको ध्येय, मानवतावाद जैसी शब्द-रचना मान्य नहीं; मूल उद्देश्यको प्राधान्य देनेवाले साहित्यकी गणना ललित साहित्यमें नहीं होती और समयके साथ वह नष्ट हो जाती है । जिसके प्रत्युत्तरमें प्रायः यशवंतराव कहते रहते हैं : ''ललित साहित्य या और किसी प्रकारका साहित्य लें तो भी उसका महत्व उसमें व्यक्त विचार और उससे होनेवाले परिणाम पर अवलंबित रहता है । शेक्सपीयर, शरतचंद्र, शेली, मुंशी प्रेमचंद, हेमचंद्राचार्य, गडकरी आदि महान् साहित्यकार भी उसमें व्यक्त विचारधाराके कारण ही सर्वश्रुत और सर्वविदित हैं ।''