सन् १९३५ के समय कुछ नौजवान कार्यकर्ताओंने मिलकर काँग्रेस दलके अंतर्गत ही बम्बईमें अखिल भारतीय काँग्रेस समाजवादी दलकी नींव रखी । इन कार्यकर्ताओंमें सर्वोदयवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण, प्रजा-समाजवादी दलके अध्यक्ष साथी अशोक मेहता, जनरल सेक्रेटरी श्री ना. ग. गोरे, श्री अच्युत पटवर्धन आदि मुख्य थे । लेकिन स्वर्गीय मानवेन्द्रनाथ रॉय इसके प्रबल विरोधी थे । उनके कथनानुसार काँग्रेस और समाजवाद परस्पर विरोधी विचार-धारा हैं । वे कभी एक-दूसरेकी सहायक नहीं बन सकती और उन्होंने अपना यह मत काँग्रेस समाजवादी दलके नेताओंको अकाटय-दलीलोंके साथ लिख भेजा, जो "Letters to the C.S.P." के नामसे प्रसिद्ध है । उस समय 'रॉयिस्ट' नामका जो एक अधिकृत गुट तैयार हुआ, उसमें यशवंतराव प्रमुख थे । इसके पूर्व यशवंतराव खुद महाराष्ट्र काँग्रेस समाजवादी दलके अध्यर्यु हो, प्रादेशिक इकाईकी स्थापनामें इनका सक्रिय साथ था । कॉलेज-जीवनसे ही उनका सम्बन्ध समाजवादी विचार-धाराके नौजवानोंसे आया था । लेकिन अन्य लोगों जैसी उनमें अंधश्रध्दा न थी । उस समय उनके साथ श्री ह. रा. महाजनी, तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशी आदि कईं नौजवान कार्यकर्ता महाराष्ट्र इकाईकी काँग्रेस समाजवादी दलमें थे । लेकिन साथी अच्युत पटवर्धनको रॉयवादियोंका इस तरह सामुदायिक रूपसे काँग्रेस समाजवादी दलमें बने रहना कतई पसन्द न था । परिणामस्वरूप जब कार्य समितिके चुनावका समय आया तब श्री ह. रा. महाजनी मंत्रीपदके लिए खडे हुए तो साथी अच्युत पटवर्धन श्री महाजनीकी उम्मीदवारीके सख्त विरोधी बन गये लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि सातारा जिलेके यशवंतरावसह छोटे-बडे सभी कार्यकर्ता श्री महाजनीके पीछे खडे हैं तब उन्होंने अपना विरोध छोड दिया । आगे सन् १९३१ में जेलसे रिहा हो, बाहर आकर स्व. मानवेन्द्रनाथ रायने काँग्रेस समाजवादी विचार-धाराका प्रबल विरोध कर एक दलके अन्तर्गत दूसरे विचार-प्रवर्तक दलके अस्तित्वको असंगत बताया । तब रॉयवादियोंने सामूहिक रूपसे काँग्रेस समाजवादी दल परित्यागकी योजना बनाई । श्री महाजनी सातारा जिलेके कार्यकर्ताओंका समर्थन प्राप्त करनेकी मनीषा लेकर कराड गये । कराडमें जिलेके कार्यकर्ताओं की बैठकमें यशवंतरावने श्री महाजनीकी योजनाका सख्त विरोध कर उन्हें स्पष्ट सवाल किया, ''महाजनी साहब, जिस तरह समाजवादी दलमें सम्मिलित होनेकी आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए आपने हमसे विचार-विनिमयकर निर्णय किया था, ठिक उसी तरह त्यागपत्र देकर दल-त्याग क्यों करना चाहिए यह ठीकसे समझाया नहीं । ऐसा अंधानुयायित्व स्वीकार करनेके लिए मैं कतई तैयार नहीं ।''
लेकिन रॉय साहबकी नवमानवतावादी बातोंसे वे अछूते न रह सके । उन्होंने समाजवादकी परिभाषा एक नये दृष्टिकोणसे रखी थी और जोर-शोरसे नवमानवतावादका प्रचार एवं प्रसार किया - तब यशवंतराव भी उसके प्रति आकर्षित हो कर रॉय-गुटमें सम्मिलित हो गये । उस समय वे तर्कतीर्थ श्री लक्ष्मणशास्त्री जोशी, श्री जी. डी. पारिख, श्री ह. रा. महाजनी, बॅरिस्टर तारकुंडे, श्री वि. वि. कर्णिक आदि रॉयवादी कार्यकर्ताओंके साथ अपना अभिष्ट ध्येय पूर्ण करनेके लिए अहर्निश सलाह-मशविरा, अभ्यास और प्रचारके लिए एक पाँव पर तैयार खडे रहते थे । लेकिन वे अधिक काल तक 'रॉयिस्ट' भी न रह सके । विश्व जब दूसरे महायुद्धकी बिभीषिकामें उलझा हुआ था और ब्रिटिश सत्ताने भारतीय नेताओंसे चर्चा-विचारणा किये बिना ही हमारे देशको युद्धमें झोंक दिया तब राष्ट्रीय काँग्रेसने सरकारको कडे शब्दोंमें चेतावनी देकर उसके इस कार्यका सख्त निषेध किया । उसने देशकी आजादीके लिए आखिरी जंग खेलनेकी ठानी । ऐसे समय रॉयिस्ट-गुटने अपना चोला बदला और यह क्रांतिकारी न रहकर, ब्रिटिश सरकार तथा देशी नौकरशाहीका सहयोगी बन गया । 'रॉयिस्ट' सामूहिक रूपसे काँग्रेस बाहर होकर राष्ट्रविरोधी कारवाइयोंमें ब्रिटिशोंका साथ देने लगे । भारतकी स्वाधीनताके बारेमें हमारा विवेकी (Rational) दृष्टिकोण है और इसीलिए हमें खुद-ब-खुद स्वराज्य मिलेगा - ऐसी रॉयिस्टोंकी मान्यता थी लेकिन काँग्रेस इस दृष्टिकोणकी कट्टर विरोधी थी । उसकी मान्यता 'स्वतन्त्रताप्राप्तिके लिए सत्तारूढ-गुटसे मोर्चा लेना ही पडेगा' ऐसी थी । उस समय रॉयिस्टोंकी मान्यता कैसे गलत थी इसका पता हमें एक अंग्रेज दार्शनिकके निम्नांकित उद्गारोंसे भली-भाँति लग सकती है :
''जो बुद्धिकी कसौटी पर उतरता है वह योग्य होता है, ऐसी बात नहीं । बल्कि जो अनुभव होता है वही योग्य होता है ।'' कालान्तरसे यशवंतरावका रॉयिस्ट मोह उतर गया और वे पुनः काँग्रेसमें सम्मिलित हो गये ।