यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -४

प्रारंभिक-शिक्षण

यशवंतरावके पुरखोंका मूल गाँव सातारा जिलेका विटा । इनके भाई-बहनका जन्म भी विटा में ही हुआ और लालन-पालन विटा तथा कराडमें । लेकिन बालक यशवंत का जन्म 'देवराष्ट्र' गाँवमें अपने ननिहालमें ईसवी सन् १९१४ के मार्च १२ को किसान-परिवारमें हुआ । 'देवराष्ट्र' गाँव दक्षिण सातारामें बसे दूसरे सामान्य गाँवोंकी तरह बिल्कुल देहाती गाँव है । इनके मामा श्री दाजी घाडगेकी वहाँ अच्छी खासी खेती-बाडी थी । आर्थिक स्थिति अच्छी होने के कारण यशवंतरावके मामा की उनके गाँवमें हाँक पडती थी । बालक यशवंत जब डेढ वर्ष का था तबसे उसकी प्राथमिक शिक्षा पूरी होनेतक वह 'देवराष्ट्र' में ही रहा । मतलब उसका शैशव 'देवराष्ट्र' की गली-कूचोंमे ही बीता । 'देवराष्ट्र' के अन्न और जलसे ही उसके शरीरका गठन हुआ ।

यशवंतरावके कुछ बडे होने पर मामा श्री दाजी घाडगेने उनका नाम प्राथमिक पाठशालामें दर्ज किया । शुरू से ही यशवंत पढनेमें तेज था । अतः सदा अपने गुरुओंकी कृपा संपादन करता रहता था । 'देवराष्ट्र' की पाठशालामें मराठी चौथी तक ही पढाई का प्रबन्ध था । अतः मराठी चौथी उत्तीर्ण करने पर उन्हें कराड आना पडा । कराडमें ममतामयी विठाबाई और ज्येष्ठ भ्राता ज्ञानोबा तथा गणपतरावके सान्निध्यमें यशवंतरावने मराठी सातवी उत्तीर्ण की । ज्येष्ठ बन्धु की तीव्र लालसा थी कि अंग्रेजी सीखकर यशवंतरावको अच्छी नौकरी लग जाए, जिससे परिवारको सहायता मिले और घरकी स्थिति भी सुधर जाय । इसी आशामें उन्होंने यशवंतरावकी पढाई आगे जारी रखी और कराडकी तिलक माध्यमिक शालामें नाम दाखिल कराया । यशवंतराव मन लगाकर अभ्यास करते थे और अपनी मेधावी बुद्धिके कारण सफलता पर सफलता प्राप्‍त करते जाते थे ।

यह सन् १९२७ का काल था । सदियोंसे गुलामीकी शृंखलाओंमे जकडे भारत देश और भारतीयोंको ''स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं लेकर ही रहूँगा'' का मंत्र देनेवाले नरकेसरी लोकमान्य तिलककी मृत्युके पश्चात् पूज्य बापूके असहयोग-युगका उदय-काल था । लोकमान्य तिलकने देशकी आजादीका बिगुल फूँका था और परम पूज्य महात्मा गांधीने असहयोग-आन्दोलनके रूपमें स्वराज्य प्राप्‍त करनेका अमोघ शस्त्र दिया था । देशके कुछ युवक सशस्त्र क्रांतिके सपने देखकर माँ भारतीको गौराङ्ग महाप्रभुओंकी सत्तासे मुक्त करानेकी अभिलाषा रखते थे । और तदनुसार छिट-पुट घटनाएँ घटती जाती थीं । उपरोक्त घटनाओंके घात-प्रतिघात यशवंतरावके बाल-मानस पर भी हो रहे थे । महात्मा फुलेके 'सत्यशोधक समाज' के आन्दोलनका प्रतिबिंब भी उनके हृदय-दर्पण पर उठता जा रहा था । सामाजिक और आर्थिक विषमताका अनुभव उन्हें तीव्रतासे होने लगा था । वे सदा उदास और दुःखी दिखाई देते। लेकिन यह समझकर कि अपने भाग्यमें ही यह दुःख-दर्द लिखा है--मन ही मन अपने बाल-मनको समझा लेते । उनके मनकी अभी इतनी तैयारी नहीं थी कि विषमता के विरुद्ध विद्रोह कर उठें । अतः पढनेकी ओर ही उन्होंने अपना मन मोडना अच्छा समझा ।

अतः वे लगनसे अभ्यासमें लग गये । उनके सामने केवल एक ही ध्येय था - पढना, पढना और पढना । उनका विद्यार्थी-जीवन किसी सामान्य विद्यार्थीसे अधिक उज्ज्वल और यशस्वी रहा । विद्यार्थी दशामें यशवंतरावको पाठ्यक्रमके अलावा बाहरी पठनपाठनका भी बडा चाव था । परिणामतः मराठी साहित्यकी तत्कालीन कृतियोंको वे भली-भाँति आत्मसात् कर सके । क्रीडा-रसिक होने पर भी दारिद्र्य-वश वे अपनी विद्यार्थी-अवस्थामें खेल न सके जिसका दर्द आज भी उनके मानसके किसी कोनेमें छुपा पडा है । मेधावी बुद्धि, अद्‍भुत प्रतिभा, चापल्य और दृढ मनोबलके साथ ही साथ यशवंतराव भाषण करनेकी कलामें सिद्धहस्त थे । वक्तृत्व-स्पर्धामें उन्होंने कई पारितोषिक जीते थे, जिसमें एक घटना विशेष उल्लेखनीय है, जो आज भी उनके मानस पर अंकित है ।

सन् १९३० ईस्वीमें जब वे तिलक माध्यमिक शालामें पढ रहे थे, पूनामें रानडे वक्तृत्व प्रतियोगिता आयोजित की गई थी । बाल-वक्ताके रूपमें यशवंतराव इससे पहले ही काफी नाम कमा चुके थे । अतः उन्होंने पूनाकी वाक्-स्पर्धामें सम्मिलित होनेका मन ही मन निश्चय किया । लेकिन अँटीमें एक पाई भी न थी; कराडसे पूना कैसे जाएँ ? बडी कठिन समस्या थी । लेकिन कहते हैं भगवान दीन दुखियों और कर्तव्यदक्षोंका बेली होता है । यशवंतरावकी समस्या भी हल हो गई; शिवाजी वटाणे नामक उनके एक मित्रने उनका अपनी मोटर सर्विससे पूना जानेका प्रबन्ध करवा दिया । यशवंतरावने पूना आकर वक्तृत्व-स्पर्धामें भाग लिया । परीक्षक थे स्व. श्री न. चिं. केलकर, स्व. श्री श्री. म. माटे, एवं स्व. श्री ज. श्री. करंदीकर । यशवंतरावको 'ग्रामसुधार' विषय पर दस मिनिट भाषण देनेके लिये कहा गया । उन्होंने अपने विषयका प्रतिपादन इतना तो प्रभावशाली ढंगसे और ओजस्वी वाणीमें किया कि परीक्षकसमितिने उन्हें दस मिनिट अतिरिक्त समय देकर अपना विषय सुचारु ढंगसे रखनेका आदेश दिया । इस स्पर्धा में यशवंतरावका प्रथम नम्बर आया और उन्हें १५० रुपयेका नकद पारितोषिक देकर सम्मानित किया गया।