स्व. किदवई साहब इससे पहले भारत सरकार के यातायात-मंत्री के रूपमें अच्छी-खासी ख्याति प्राप्त कर चुके थे । ठीक वैसे ही खाद्य और पूर्तिमंत्रालय का गुरुतर दायित्व अंगिकार कर गुप्त ढंग से बडेबडे व्यापारियों से मेल-मुलाकात कर उनका मनोदय और कठिनाइयों की तह तक पहूँच चुके थे । परिस्थिति का निरीक्षण और मनुष्य की परख ये दोनों गुण स्व. किदवई साहब और यशवंतराव में सम-प्रमाणमें थे । अतः सत्य परिस्थिति का आकलन करने में वे कभी नहीं चुकते थे । फलतः 'समानशीले व्यसनेषु सख्यम्' तरह प्रथम भेंट में ही दोनों में स्नेह की भावना निर्माण होते देर न लगी । यशवंतराव आयु में छोटे होते हुए भी स्व. किदवई साहब के स्नेह-भाजन बनने में सफल हो सके । परिणामस्वरूप भाषाविषयक वादग्रस्त प्रश्न पर दक्षिण भारतीय-नेताओं का मनोगत यशवंतराव स्व. किदवई साहब के माध्यम से प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तक पहुँचाने में सफल हुए । स्व. रफी साहब पंडितजी के दाँये हाथ और घनिष्ट मित्र समझे जाते थे । रफी साहब की मृत्यु से यशवंतराव को ऐसे लगा जैसे राजकीय क्षेत्र का उनका एक बडा आधारस्तंभ ही टूट गया हो । बम्बई राज्यीय पूर्तिमंत्रालय को कार्यक्षम सिद्ध करने का सारा श्रेय वे स्व. रफी साहब को ही देते हैं । परिणामतः पूर्तिमंत्रालय का दायित्व ग्रहण करने की एक वर्ष की अवधि में ही यशवंतराव खाद्य और पूर्ति सम्बंधित अपनी नई नीति घोषित करने में सफल हुए । १९५२ की दिसम्बर २ के संवाददाता-संमेलन में उन्होंने कहा : ''केन्द्रीय सरकारने राज्यीय सरकारों से विचार-विनिमय कर निर्णय किया है कि अंतर्देशीय नियंत्रणों को कायम रखते हुए भी किसी भी राज्यीय सरकार को अन्य राज्यीय सरकारसे अनाज खरीदी करने की अनुज्ञा (छूट) रहेगी । ठीक वैसे ही केन्द्रीय सरकार की नीति से सुव्यवस्थित सम्बंध बनाये रख कर राज्यीय सरकार अपने क्षेत्रमें अंशतः प्रमाणमें नियंत्रण उठा सकती है । तदनुसार बम्बई सरकारने ३० हजार की आबादीवाले छोटे छोटे शहरों तथा गाँवो से बाजरी, मक्कई, ज्वारी आदि अनाज पर से हर प्रकार के नियंत्रण उठाने का निर्णय किया है । यह नीति आम जनता के लाभार्थ कार्यान्वित करने का निर्णय सरकारने लिया है । ठीक वैसे ही अनाज की कीमत में यकायक वृद्धि न होजाय और नियंत्रण के जमाने से भी अधिक कठिनाइयोंका सामना जनता को न करना पडे । अतः सरकार पूर्ण रूप से सजग है । नियंत्रण के कारण ग्रामीण जनता की जो दुर्दशा हो रही थी उस मुसीबत से छुडाने के लिये ही यशवंतराव ने खाद्यविषयक नई नीति अंगिकार की थी । अपनी नई नीति से सम्बंधित रेडियो प्रवचन में उन्होंने धान्योत्पादक एवं व्यापारीवर्ग से हार्दिक अपील की थी : ''हम जिस नई नीति का अवलम्बन कर रहे हैं उसका सारा आधार धान्योत्पादक कृषक-वर्ग एवं व्यापारी वर्ग की राष्ट्रीय सद्भावनाओं पर सर्वस्वी अवलम्बित है । फलतः उन्हें सरकार के साथ सक्रिय सहयोग कर अपनी देशभक्ति का ज्वलंत उदाहरण पेश करना चाहिए । ठीक वैसे ही विरोधी दलों को जरा रुक कर हमारी नई नीति का सूक्ष्मावलोकन कर सरकार पोषक वातावरण निर्माण करना चाहिए ।''
तत्पश्चात् चावल को छोडकर सभी प्रकार के अनाज पर के सारे बंधन उठा दिये गये । शक्कर, वस्त्र, केरोसीन आदि दैनंदिन आवश्यक चीजों पर से भी नियंत्रण हटा दिया
गया । गेहूँ का रेशनिंग भी खत्म हो गया । सन् १९५२-५३ में बम्बई सरकार की धीमी गति से नियंत्रण उठाने की नीति सफल सिद्ध हुई और सभी चीजें निश्चित दर पर सरे आम मिलने लगी । यशवंतराव को अपनी नई खाद्य-नीति के बारे में कितना आत्मविश्वास था यह उनके 'पूर्तिमंत्रालय को कभी बंद करने का अवसर आ गया तो मुझे आश्चर्य न होगा ।' शब्दोच्चार से ही भली भाँति प्रकट होता है और उनके शब्द सत्यमें परिवर्तित हुए जब एक वर्ष के बाद ही बम्बई सरकार को अपना पूर्तिमंत्रालय सदा के लिए बंद कर देना पडा ।
पूर्ति-मंत्रालय को कुलुप लग जाने पर यशवंतराव के जिम्मे स्वायत्त शासन, जंगल एवं विकास विभाग का संयुक्त मंत्रालय दिया गया । सन् १९५४ के जुलै में सातवे वनमहोत्सव के प्रसंग पर प्रवचन करते हुए यशवंतराव ने कहा था : ''अल्पावधि पूर्व ही खाद्य-विषयक परिपूर्णता हमने जो प्राप्त की है अगर उसे राष्ट्रीय योजना में स्थायी रूप प्रदान करना है तो हमें अपनी वन-संपत्ति का जतन बडी ही सावधानी से करना होगा । हमें ऐसे वृक्ष लगाने होंगे जिनसे ईंधन भी आसानी से मिल सके । इंधन के लिए अगर लकडियों का उपयोग सुलभ बन जाय तो गोबर का उपयोग बन्द हो जायगा और उसका उपयोग खेती के लिए खादरूप में होगा ।''
स्वायत्तशासनमंत्री के नाते यशवंतराव ने स्वायत्तशासन संस्थाओं की छोटी-छोटी परिषदें आयोजित कर अपनी समस्याएँ विचार-विनिमय द्वारा हल करने का सुझाव कार्यकर्तावर्ग को दिया । वे खुद्द युरूप-अमरिकी स्वायत्त संस्थाओं का गहराई से अध्ययन करनेमें लगे हुए थे । धारवाड जिले की स्वायत्तशासन संस्थाओं के प्रथमाधिवेशन में उन्होंने बताया कि, द्वितीय पंचवर्षीय योजना में स्वायत्तशासन संस्थाओं पर महद् जिम्मेदारी आने वाली है अतः उन्हें वह जिम्मेदारी वहन करने के लिए सभी दृष्टि से योग्य बनाना चाहिए । ऐसी अनेक परिषदों का आयोजन होना चाहिए, जिससे वे एक दूसरी की आवश्यकताएँ, जटिल समस्याएँ समझ कर उन्हें हल करने का सही मार्ग खोज निकाल सकेंगी । तत्पश्चात् १९ जुलै १९५८ में पूर्व और पश्चिम खानदेश जिले की म्युनिसिपैल्टियों के अध्यक्ष, चेयरमेन एवं चीफ ऑफीसरों की परिषद में अध्यक्षपद से प्रवचन करते हुए उन्होंने कहा : ''अखिल बम्बई इलाके में इस प्रकार की यह पहली ही परिषद है ।