कुशल प्रशासक
सन् उन्नीस सौ सयालीस के आम निर्वाचन में बम्बई विधान सभा के लिए निर्वाचित होने पर यशवंतराव को श्री बालासाहब खेर के मंत्रीमंडल में गृहविभाग का संसदीय मंत्री बनाया गया । उस समय इन पर दुहेरी जिम्मेदारी थी--सरकारी और काँग्रेस-संगठन में दल का संगठन सुदृढ करने की, जिसे इन्होंने बडी ही खूबी से निभाया । श्री मोरारजी देसाई की निगरानी में वे राज्य-प्रशासन की छोटी-मोटी समस्याएं सुलझाने में लग गये । उन दिनों बम्बई राज्यमें गृहरक्षक दल (Home Guard) की स्थापना अभी नयी नयी हुई थी, जिसके सूत्र हाथ में लेकर इन्होंने कार्यक्षम बनाने की पराकाष्ठा कर दी । कुछ विरोधियों ने संगठित रूपसे वालवे तहसील की गन्दी राजनीति के छींटे यशवंतराव पर उडा कर इन्हें जान बुझकर बदनाम करने के प्रयत्न प्रारम्भ किये थे । और इस तरह वे यशवंतराव को सदा के लिय सार्वजनिक जीवन से नेस्तनाबुद करना चाहते थे । यह तो ठीक, लेकिन इससे भी एक कदम आगे बढ कर उन्होंने यशवंतराव का खून कराने का व्यवस्थित षडयंत्र रचा । लेकिन कहते हैं न कि 'जिसको देव तारे उसे कौन मारे ?' यशवंतराव का बाल भी बांका न हुआ । जब उनके ज्येष्ठ बन्धु गणपतराव अत्यवस्थ थे तब उन्हें चिकित्सा के लिए ओगलेवाडी की खुली हवा में रखा था । यशवंतराव कराड आकर उनसे मिलने ओगलेवाडी गये और मिलकर पुनः लौटे । इतनी अवधिमें तो दो-तीन लोग, जिन पर खून करने का दायित्व था इनकी पूछ-ताछ और विशेष जानकारी प्राप्त करने हेतु वासस्थान पर आ चुके थे । यशवंतराव को जब पता चला तब उन्होंने केवल इतना ही कहा : ''जितने तारे गगन में, उतने शत्रु होय । कृपा होय रघुनाथ की, तो बाल न बांका होय ।'' इस पर से ही हम उनके अद्भुत धैर्य की कल्पना कर सकते हैं ।
पूज्य बापू की आकस्मिक हत्या से सारा भारत चौंक उठा । सभी की वक्र-दृष्टि हत्यारे और उसके प्रांतवासियों पर पडी । सारे महाराष्ट्र में हाहाकार मच गया । जिस मनोवृत्ति के वशीभूत होकर हत्यारे ने बापू जैसे शांतिदूत, महात्मा और देश को आजादी दिलानेवाले महामानव की हत्या करने के लिए कटिबद्ध हो, निर्मम हत्या की, उस मनोवृत्ति के अनुयायियों की सरे आम धज्जियाँ उडाने से जनता बाज न आई । महाराष्ट्र के कोने कोने में उस वर्ग के प्रति असंतोष, रोष और प्रतिशोध की भावना भडक उठी । सरकारने जनता को शांत करने के लिए हर तरह की कोशिश की और पीडितों को हर प्रकारकी सहायता दी । इस अवसर पर कराड में एक भी वारदान न हुई । इसी में यशवंतराव के वैचारिक नेतृत्व का रहस्य समाया हुआ है । साम्प्रदायिकता के प्रति उनका कडा विरोध सर्वश्रुत ही है; लेकिन एकाध समाज के दूषित साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से अगर कोई दुर्घटना हो जाय तो इसकी सारी जिम्मेदारी समस्त समाज की है, मान कर उस पर अत्याचार करना और जुल्मों-सितम ढाना, न्याय नहीं है । ऐसे प्रसंग पर जनता का क्रोधित होना स्वाभाविक था--लेकिन उस क्रोध को अनिष्ट रूप धारण करने के पूर्व ही कार्यकर्ताओं को उसे अपने नियंत्रण में रखना चाहिए--ऐसा अपना स्पष्ट मत घोषित कर जिले के सभी कार्यकर्ताओं को दौरा करने का आदेश दे, खुद की निगरानी में शांति-स्थापना का कार्य सम्पन्न किया ।
उस समय खाद्य-स्थिति बडी ही बदतर थी । और पूर्तिमंत्रालय को प्रायः विरोधी-नेता एवं आम जनता की कटु आलोचना का शिकार होना पडता था । फलतः योग्य व्यक्ति भी पूर्तिमंत्रालय का दायित्व वहन करने के लिए तैयार होनेमें हिचकिचाता था । क्योंकि विषम परिस्थिति में सिवाय आलोचना और बदनामी के पल्ले और पडता ही क्या ? यशवंतराव ने अद्भुत साहस का परिचय दिया और बम्बई राज्यीय पूर्तिमंत्रालय के सूत्र हाथमें लिये । कृषि, धान्य उत्पादन एवं अर्थशास्त्र जैसे विषयों में वे निपुण न थे लेकिन सामान्य मनुष्य का मनोगत परखने की शक्ति तथा व्यवहारकुशलता ये दो गुण उनमें सबसे बडे थे । गरीबी से बढने के कारण और संगठन-कार्य के समय विभिन्न लोगों से निकट का सम्पर्क आने की वजह से आम जनता की नाडी वे भली भाँति जानते थे । अतः अपनी व्यावहारिक बुद्धि ही पूर्तिमंत्रालय की तारक-शक्ति सिद्ध होगी--यह मन ही मन निश्चय कर बडी ही सावधानी से पूर्तिमंत्रालय विधेयक नई नीति अख्तियार करने का सिद्धांत अपना रहे थे । यशवंतराव का सौभाग्य था कि उन दिनों भारत सरकार में कृषि और खाद्य-मंत्रालय की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी स्वर्गीय रफी अहमद किदवई के सुदृढ कन्धों पर थी ।