संयुक्त महाराष्ट्र की समस्या
गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने के लिए भारतीय जनता अधीर हो उठी । फलतः देशे में राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई । क्रांतिकारी तरीकों से देश को आजाद कराने की योजनाएँ बनीं । आंग्ल-विद्या-प्रेमियों द्वारा प्रस्थापित काँग्रेस ने उन्नीसवीं सदी में राष्ट्रीय स्वरूप धारण करना शुरू किया । लोकमान्य तिलक, न्यायमूर्ति रानडे, गोपाल कृष्ण गोखले, दादाभाई नवरोजी, विठ्ठलभाई पटेल, पंडित मोतीलाल नेहरू, लाला लजपतराय आदि राष्ट्रीय नेताओंने देश को स्वाधीन बनाने के हेतु विभिन्न कार्यक्रम बनाये । महात्मा गांधी का दक्षिण आफ्रिका से भारतमें आगमन हुआ । उन्होंने देश की आजादी के हेतु अहिंसा, सत्य, विदेशी वस्त्रों का परित्याग, चर्खा, हरिजनोद्धार जैसे कार्यक्रम दिये । उनमें मातृभाषा प्रचार का कार्यक्रम प्रमुख था । उन्होंने बताया कि भारत की जनता अनपढ है । गरीबी और कंगालियत में सड रही है । उसे अगर देश की आजादी के लिए तैयार करना है तो उसकी भाषा में हमें बोलना होगा । उसके बीचमें जाकर रहना होगा । उसके दुःख-सुख से समरस होना होगा । इन तत्वों की प्राथमिक तैयारी के लिए हर प्रांत में काँग्रेस की शाखाएँ खोलीं । भाषानुसार प्रांत रचना का पुरस्कार किया । उसने आम जनता को बताया कि देश को स्वाधीनता मिलने पर भाषानुरूप विभिन्न राज्यों की स्थापना की जाएगी । इस तरह स्वाधीनता-संग्राम को गति प्रदान करने के हेतु राष्ट्रीय काँग्रेस ने भाषाई प्रांतों की योजना मान्य की ।
सन् १९४९ के जून में 'धार कमिशन' की नियुक्ति की गई, जिसने बम्बई राज्यसे सम्बन्धित प्रत्येक प्रश्न का सूक्ष्मावलोकन कर बम्बई शहर बहुविध संस्कृति का केन्द्र होने के कारण संयुक्त महाराष्ट्र में इसका समावेश नहीं होना चाहिए ऐसा निर्णय दिया । तत्पश्चात् १९४९ के दिसम्बर में जयपुर में संपन्न काँग्रेसने 'जवाहर-वल्लभभाई-पट्टाभि सीतारामैया समिति' की नियुक्ति की । उपरोक्त समितिने भी धार समिति जैसा ही निर्णय घोषित किया । उनकी माँग भी पुरानी थी और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित । अतः महाराष्ट्र के नेताओं को खाना अंग नहीं लग रहा था । फिर भी दोनों की मनीषा थी कि परस्पर समझौते द्वारा एक हो कर माँग रखी जाय तो सफल होने की अंशतः संभावना अवश्य है । तदनुसार २९ सितम्बर १९५३ को नागपुर में विदर्भ एवं महाराष्ट्र के अग्रगण्य नेताओं का एक सम्मेलन सम्पन्न हो कर 'नागपुर करार' का जन्म हुआ । नागपुर करार के द्वारा महाराष्ट्र के नेताओंने विदर्भ को कुछ विशेष रियायतें देना मान्य किया था । इस ऐतिहासिक नागपुर-करार पर महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए यशवंतराव ने हस्ताक्षर किये थे ।
उस समय महाराष्ट्र के दिग्गज नेता श्री शंकरराव देव अखिल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के महामंत्री थे और देश का सबसे बडे दल काँग्रेस के हाथ में शासन की बागडोर थी । फलतः संयुक्त महाराष्ट्र परिषद की स्थापना में विरोधी से बढ कर काँग्रेस-कार्यकर्ताओं का हाथ था । काँग्रेस की ओर से अन्य कार्यकर्ताओं के साथ श्री शंकरराव देव, पंजाब के वर्तमान राज्यपाल काकासाहब गाडगील, भाऊसाहेब हिरे, डॉ. टी. आर. नरवणे और यशवंतराव आदि मुख्य थे ।
काँग्रेस के हैदराबाद अधिवेशन में भाषाई प्रांत रचना से सम्बंधित एक प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे वारित किया गया, जिसे श्री काकासाहब गाडगीलने रखा था । उस पर एक उपसूचना सुझाते हुए यशवंतरावने भाषाई प्रश्न को लेकर पैदा होनेवाले भावी खतरे की ओर इंगित करते हुए इस समस्या को यों ही खटाई में न डाल कर, शीघ्रातिशीघ्र इसका निपटारा करने का साग्रह अनुरोध किया था । उनकी यह दृढ मान्यता थी कि भाषाई-समस्या की वास्तविकता को समझ कर उसे बुद्धिपूर्वक हल करने से किसी प्रकार की कटुता और वैर-वैमनस्य की भावना पैदा न होगी बल्कि एक जटिल समस्या समझौतावादी रूख से आसानी से हल होजायगी । उन्होंने अपना यह मनोगत भारत सरकार के तत्कालीन खाद्यमंत्री स्वर्गीय रफी साहब के समक्ष प्रकट भी किया था ।