यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -२५

जननेता

सन १९४६ के आम-निर्वाचनके पश्चात् बम्बई-प्रदेश में जो मंत्रीमंडल गठित हुआ-उसके प्रति प्रदेशके ही एक वर्ग में असंतोषकी आग भडक उठी । सर्वदृष्टिसे प्रतिनिधिमूलक मंत्रीमंडल होते हुए भी उनकी दृष्टिसे वह न था । बल्कि इससे भी एक कदम आगे रखकर असंतुष्ट-वर्ग ने बताया कि वर्तमान मंत्रीमंडल में प्रदेशकी आम-जनताको योग्य प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है इस तरह बहुमतकी जान-बुझकर उपेक्षा की गई है । परिणाम स्वरूप इस समस्या का आमूलाग्र विचार करनेके लिए असंतुष्ट-वर्ग ने दो सभाएँ आयोजित की थीं, जिनमें से एक यशवंतरावकी अध्यक्षता में और दूसरी श्री मोरेकी अध्यक्षता में । प्रत्येक सभा में विधायिका दलके लगभग ८०-८५ विधायकों की उपस्थिति थी । विभिन्न लोगोंने विभिन्न मतप्रदर्शन किये । लेकिन यशवंतरावकी दृढ मान्यता थी कि आम-जनता का कल्याण राष्ट्र-कल्याण में संनिहित है और पुरोगामी विचार-धाराको लेकर ही उसे हम आसानीसे हल कर सकते हैं । और अपनी इसे लक्ष्य-सिद्ध के लिए दल के अन्तर्गत संगठित बनकर प्रयास करनेमें कोई हर्ज नहीं । इस योजनामें अपना सक्रिय साथ भी उन्होंने घोषित किया । पर वे भारतकी राजनैतिक गुत्थियोंको सुलझानेके लिए महाराष्ट्रमें या बम्बई इलाके में किसी स्वतंत्र-दल की आवश्यकता अनुभव नहीं करते थे । बल्कि ऐसे दलकी स्थापनासे आम-जनताके कल्याणके बजाय सत्ता-प्राप्तिके लिए परस्पर झगडे ही ज्यादा होंगे । वैर और वैमनस्यकी भावना जोर पकड जाएगी । फलतः जनसेवा की कामना दूर होकर प्रदेशमें गन्दी राजनीति पनपने लगेगी ऐसी उनकी दृढ मान्यता थी और उन्होंने अपने ये विचार साथी विधायकोंके समक्ष भी साफ-साफ शब्दोंमें रखे । पर वहाँ यशवंतरावकी तरह दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनानेकी तैयारी कहाँ थी । आखिर महाराष्ट्रकी राजनैतिक-क्षितिज पर 'कृषक-मजदूर पक्ष' का उदय होकर ही रहा ।

कृषक-मजदूर पक्षकी स्थापना क्या हुई ? महाराष्ट्रकी राजनीतिमें आँधी और तुफान आ गया । इस तूफान, जिसमें साम्प्रदायिक भावनाकी झंझा सम्मिलित थी, ने सारे महाराष्ट्रको ढंक दिया । महाराष्ट्र काँग्रेसके रथी-महारथियोंके कदम भी डगमग उठे । कित्येक उसमें धराशायी हो गये तो कित्येक अन्त तक टिके रहे और भविष्यमें आगे आ गये । कल तकके राष्ट्रीय विचारोंका संदेश घर-घर पहूँचानेवाले और काँग्रेसके रथको आगे बढानेमें सदा अग्रज रहनेवाले असंख्य काँग्रेस कार्यकर्ता और नेता चुटकीमें नये दलमें सम्मिलित होकर उसकी नींव पक्की करनेमें जुट गये । इससे महाराष्ट्र काँग्रेसमें भूचाल आगया । महाराष्ट्र काँग्रेसकी नौका डूबती है या रहती है ? यह सोचकर काँग्रेस श्रेष्ठिवर्ग चिंतित हो उठा । ऐसे समय महाराष्ट्र-काँग्रेसकी हानिकी पूर्तिके हेतु जो निष्ठावंत कार्यकर्ता आगे आये । जिन्होंने अपनी खुली छाती पर कृषक-मजदूर पक्षके जहरीले, साम्प्रदायिक विचारोंसे सने बाणोंको हँसते हँसते खेला और महाराष्ट्रके प्रत्येक गाँव तहसील और जिलेकी काँग्रेसको स्थिर करनेमें जो तन-मन-धनसे लग गये, उनमें पंजाबके वर्तमान राज्यपाल श्री काकासाहब गाडगील, श्री देवगिरीकर, श्री भाऊसाहब हिरे और यशवंतराव मुख्य थे । साम्प्रदायिकता की आँधी में ऐसे विरले कुछ ही थे जो देश पहले और फिर सब मानते हों । लेकिन यशवंतराव पहले से ही देशके प्रति निष्ठावान बने रहे हैं । उन्होंने जनतंत्रकी निष्ठामें ही, देशके प्रति निष्ठामें ही, आमजनताके प्रति निष्ठाके दर्शन किये । फलतः अंत तक उनके पाँव नहीं लडखडाये और उनकी राष्ट्रनिष्ठा अटल-अचल बनी रही ।

पुराने काँग्रेसियोंके संगठनसे दूर होते ही जो स्थान रिक्त हुए थे उन पर नये और उत्साही कार्यकर्ताओंके दर्शन होने लगे । महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस समितिके अध्यक्षके रूपमें नासिकके श्री भाऊसाहब हिरे का सर्वसम्मतिसे चुनाव हुआ । जेधे-गाडगीलकी महाराष्ट्रमें रामलक्ष्मणके रूपमें प्रख्यात जोडी टूटते ही हिरे-गाडगील-चव्हाणकी त्रिमूर्ति प्रदेशमें धूम मचाने लगी । जेधे-मोरेके काँग्रेस परित्याग से हुई दलकी हानिको पूरी करनेकी महद्पूर्ण जिम्मेदारी हिरे, गाडगील, देवगिरीकर पर आ पडी । उस समय यशवंतराव भी कंधेसे कंधा भिडाकर उनके साथ काम करने लगे । फिर तो तूफानी दौरे, धुआँधार भाषण, विचारोंका आदान-प्रादान, लेखमाला आदि सभी उपयुक्त तरीकोंसे काँग्रेसके गठन, संवर्धन और संरक्षण के लिए इन लोगोंने अपने प्राणोंकी बाजी लगा दी । भाऊसाहब हिरेकी कमजोरियोंको यशवंतरावने पूरा किया और यशवंतरावके असीम उत्साह तथा संगठन-चातुर्यका श्री हिरेने अपने कार्यसे बढावा दिया । इस तरह श्री भाऊसाहब हिरेके नेतृत्वको यशवंतरावने स्वेच्छया पुरस्कार किया और आम-जनताके हितार्थ काँग्रेस-दल ही श्रेष्ठ है-- इसका लोगोंको विश्वास दिलाया ।