यशवंतरावके नेतृत्वमें साम्प्रदायिक चुनौतीके बजाय राष्ट्रीय भावना और पुरोगामी राजनीतिको चुनौती होनेके कारण बहुजनसमाजके नाम पर आगे बढे । भाऊसाहब, यशवंतरावके बजाय बहुजनसमाजमें अधिक प्रिय बन सके । यशवंतराव इस प्रकारकी लोकप्रियतासे कोसों दूर रहना ही पसंद करते थे । जबकि उनकी कुशाग्र बुद्धि, मेधावी प्रतिभा, संगठन-चातुर्य, कर्तव्यनिष्ठा एवं कार्यकुशलता भलेभलोंको मात कर दे ऐसी थी । इस प्रकार यशवंतरावकी राजनीति यानी टेढी खीर थी । उन्हें बहुजनसमाजका विश्वास संपादन कर पुरोगामी प्रजातंत्रीय निष्ठाको कायम रखनेका दुष्कर कार्य करना था ।
महाराष्ट्र काँग्रेसमें जिस तरह यशवंतराव भाऊसाहब हिरेके नेतृत्वमें कार्यरत थे ठीक उसी तरह सन् उन्नीस सौ सयालीसके मंत्रीमंडलमें जब स्वर्गीय बालासाहब खेर प्रधानमंत्री थे और यशवंतराव संसदीय मंत्री तथा सन् बावनमें श्री मोरारजी देसाईके मंत्रीमंडलमें जब वे श्री मोरारजी देसाईसे प्रशासनिक यंत्रकी जानकारी प्राप्त कर उनकी निगरानी में कार्य-संलग्न रहे । मोरारजी देसाईकी गणना भारत के कठोर और एक योग्य प्रशासकके रूपमें सर्वत्र होती है । यह बात मोरारजीके कट्टर विरोधी भी निःसंदिग्ध रूपसे मान्य करते हैं । बाह्यपठन, राजनीतिका सखोल अभ्यास और मेधावी बुद्धिने यशवंतरावको ज्यों युवावस्थामें ही मुत्सदी बना लिया ठीक त्यों ही मोरारजी देसाईके मार्गदर्शन और प्रशासनकी खूबियोंने यशवंतरावको एक योग्य प्रशासक बना दिया - जिसके फलस्वरूप वे इतने बडे विशाल द्विभाषिक का गुरुतर शासन-भार वहन करने में सफल सिद्ध हुए । विरोधियोंने यशवंतरावको श्री मोरारजी देसाईका पीछलग्गू, गूगाँ आदि कहकर नाना प्रकारसे बदनाम करनेका प्रयास किया । पर वे टससे मस न हुए । खेर मंत्रीमंडलके समय यशवंतरावकी मेज पर केवल एक ही तस्वीर थी - जिससे वे कार्य करनेकी सतत प्रेरणा पाते थे और वह थी श्री मोरारजी देसाईकी तस्वीर ! विशाल द्विभाषिक बना ! श्री मोरारजी देसाईकी नियुक्ति भारतीय केन्द्रीय मंत्रीमंडलमें वित्तमंत्रीके रूपमें हुई । द्विभाषिकका मुख्यमन्त्री पद यशवंतरावको अपनी अनन्य निष्ठा, कार्यदक्षता एवं श्री मोरारजी देसाईके समर्थनसे मिला । और आज द्विभाषिक विभाजनकी अंतिम घडियाँ हैं । लेकिन श्री मोरारजी देसाई और यशवंतराव के सम्बंध आज भी अटूट हैं । जब कभी यशवंतराव दिल्ली जाते हैं श्री मोरारजी के यहाँ उतरते हैं और मोरारजी बम्बई आने पर यशवंतराव के घर ! दोनोंका एक-दूसरे पर अत्यंत विश्वास और स्नेह है । खेर साहब के समय गणपतरावकी मृत्योपरांत जब यशवंतराव अपने कार्यालय कटे तब मोरारजीने स्नेहशील भावसे उन्हें आश्वासन देते हुए कहा था : ''अभी आपकी आवश्यकता परिवार को है । कार्यालयकी जरा भी चिंता न करें । मैं सब ठीक कर लूँगा !'' इस पर से पाठक-वर्ग श्री मोरारजी तथा यशवंतराव के पारस्परिक स्नेह-सम्बंधों की भलीभाँति कल्पना कर सकता है ।