सिंडिकेट और इंडिकेट काँग्रेस
काँग्रेस के बंगळूरू अधिवेशन में (१९६९) इंदिराजी के मोरारजी देसाई, स.का. पाटीलजी, अतुल्य घोषजी, निजलिंगप्पाजी से मतभेद हो गये । इसलिए काँग्रेस का 'इंडिकेट काँग्रेस' और 'सिंडिकेट काँग्रेस' में विभाजन हो गया । इंदिरा गांधीजी ने काँग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार श्री. संजीव रेड्डीजी को पराभूत किया । राष्ट्रपति के चुनाव में यशवंतरावजी चव्हाण और महाराष्ट्र काँग्रेस ने संजीव रेड्डीजी को समर्थन दिये जाने के कारण यशवंतरावजी चव्हाण और इंदिरा गांधीजी इन दोनों के संबंध बिगड गये । इस परिस्थिति में सिंडिकेट काँग्रेस ने इंदिरा गांधीजी के स्थान पर यशवंतराव चव्हाण को प्रधानमंत्री पद पर बिठाने की ऑफर दी । परंतु उन्होंने इस बात का इन्कार कर दिया और यशवंतरावजी ने कहा कि - प्रधानमंत्री पद आपस मे लडकर प्राप्त किया तो यह देश अच्छी तरह चलाना असंभव होगा । उत्तर विरुद्ध दक्षिण, ब्राह्मण विरुद्ध मराठा, क्षत्रिय, जाट, रजपूत ऐसे गुट बनाकर भारत देश का कारोबार चलाना हितकारक नहीं होगा । विपक्ष को काँग्रेस में और एक फूट चाहिए थी । मैं मेरे हाथ से वह फूट पडने नहीं दूँगा । थोडे समय तक रहनेवाले प्रधानमंत्री पद की अपेक्षा नहीं है और मुझे उसका आकर्षण भी नहीं है ।' इससे स्पष्ट होता है कि यशवंतरावजी कभी भी अवसरवादी राजनीतिज्ञ नहीं थे । उन्होंने हमेशा राष्ट्रहित महत्त्वपूर्ण माना ।
१९७१ में मध्यावधि चुनाव हुए । इस चुनाव में इंदिरा गांधीजी ने प्रचंड बहुमत संपादन किया । इस चुनाव में महाराष्ट्र में टिकट का बँटवारा करते समय यशवंतरावजी को कमजोर करने के लिए 'मराठा' उम्मीदवार विशेषतः पाटील और देशमुख को हटाने के प्रयत्न हुए । इस परिस्थिति में भी यशवंतराव चव्हाण की सहनशीलता, स्थितप्रज्ञ प्रवृत्ति और सच्चाई इन गुणों का प्रत्यंतर आया । वस्तुतः विरोध और संघर्ष यह यशवंतरावजी का पिंड नहीं था । उनके स्वभाव में समझौते का भाग अधिक था । उनके मतके अनुसार दिल्ली से संघर्ष करके महाराष्ट्र की प्रगति साध्य नहीं कर सकेंगे । मुख्य प्रवाह से महाराष्ट्र अलग नहीं हो सकेगा ऐसा उन्हें लगता था ।