भाषा साहित्य और यशवंतरावजी चव्हान
अनन्त गोपाल शेवडे
श्री. यशवन्तरावजी चव्हान साहब से मेरी पहली मुलाकात हुई २ अक्टूबर १९५६ को । वे श्री कन्नमवारजी के निवास-स्थान पर ठहरे हुए थे और दिन भर गानधी-जयन्ती के कार्यक्रमो को निपटाकर थके-मांदे देर रे लौटे थे । एक साहित्यिक-पत्रकार मित्र के जरिए यह भेंट तय हुई थी ।
उस समय श्री चव्हान पुराने बम्बई राज्य के एक मन्त्री मात्र थे । नए विशाल द्विभाषी बम्बई राज्य के निर्माण का निश्चय हो चुका था, पर उस वक्त यह स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि उसके मुख्यमन्त्री वे होंगे । उन दिनो तो यही लगता था कि श्री. मोरारजीभाई देसाई के हाथ में ही इसके संचालन की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी ।
एक तरह से काफी संघर्ष और वाद-विवाद के दिन थे । बम्बई के प्रश्न को लेकर तनाव पैदा हो गया था और मराठी एवं गुजराती भाषी लोगों में कुछ, मनमुटाव पैदा हो गया था जो वाछनीय नहीं था । हालांकि प्रत्यक्ष राजनिति से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था - न तब था और न अब है - फिर मी एक साहित्यिक एवं तटस्थ पत्रकार की दृष्टि से तथा एक नागरिक की हैसियत से भी, मेरे मन में इन घटनाओं की प्रतिक्रियाऐ अवश्य हुआ करती थीं । शायद मेरी अलिप्तता और तटस्था के कारण ही मेरे विचारो का कुछ भेंट का आयोजन किया हो ।
हमारी भेंट के लिए कोई हेतु या विषय तो था नहीं - वह एक मुलाकात के लिए मुलाकात थी । महज एक सम्पर्क । इसलिए बातचीत का सिलसिला कोई पूर्व-नियोजित नहीं था, वहीं के वहीं चल पडा ।
मुझे स्मरण है कि मैने श्री चव्हान साहब से दो मुद्दो पर विशेष रूप सें बातचीत की थी । एक तो यह कि यदी द्विभाषी बम्बई राज्य का प्रयोग सफल करना हो तो गुजराती बन्धुओ की हार्दिक सभ्दावना और सहयोग अत्यन्त आवश्यक है । उन्हें यह कदापि नहीं अनुभव होना चाहिए कि चूं कि वे कम संख्या में है इसलिए उन्हे जरा भी नुकसान होगा । उन्हे हमेशा यह महसूस होना चाहिए की वे बराबरी के इज्जतदार साक्षेदार हैं जिनके सहयोग की कद्र की जाती है । त भी वे तहेदिल से इस प्रयोग को सफल बनाने के लिए जी-जान से कोशिश करेंगे । दोनो भाषा-भाषियो में अपने अपने विशिष्ट गुण है, और यदि दोषों को दर-किनार रखकर इन गुणों पर ही जोर दिया जाए तो नया बम्बई राज्य अत्यन्त समृद्ध और वैभवशाली बन सकता है ।
मेरा दूसरा मुद्दा यह था कि इस प्रदेश का जनता, जो पुराने मध्य प्रदेश से हटकर नए बम्बई राज्य में सम्मीलित की जा रही है, यह अपेक्षा रखती है कि शासन शुद्ध, तटस्थ और स्वच्छ हो, भ्रष्टाचार से मुक्त हो, और चुस्त, तेज और कार्यक्षम हो, और चूंकि वह प्रजातान्त्रिक शासन है इसलिए जनताभिमुख तो उसे होना ही चाहिए ।
इन दोनों बातों के बारे में श्री यशवन्तरावजी ने तुरन्त कहा की इसमें मतभेद की तो कोई गुंजाइश नही है -मैं शब्दो से क्या कहूं ? हमारी कृति ही हमारे प्रयत्नो का सबूत दे सकती है । मेरी इच्छा है कि इस विभाग की जनता की ये आकांक्षाएं पूरी होनी चाहिए ।
उस समय स्वतंत्र विदर्भ का प्रश्न विशेष जोर पर नहीं था । इस मत के माननेवाले लोगों को द्विभाषी बम्बई राज्य में रहने में इतराज नहीं था । यह मामला तो तब खडा हुआ जब द्विभाषी राज्य टूता और महाराष्ट्र राज्य बना ।