घटना ऐसी थी कि चुनाव के ऐन दो दिन पूर्व पंडित जवाहरलाल नेहरूका एक सार्वजनिक भाषण कराडके स्वामी-बागमें रखा गया था । काँग्रेसी उम्मिदवारके समर्थकोंने पंडितजीके आगमनका संदेश सातारा जिलेके एक छोरसे दूसरे छोर तर प्रचार भाषणोंके साथ पहूँचा दिया था । अतः भाषण सुनने जनता बहुत बडी संख्यामें आनेवाली थी । कराड सभाके एक दिन पूर्व पंडितजीका व्याख्यान निपाणीमें था । वहाँसे वे सुबह चार बजे आनेवाले थे । उनकी अगवानीके लिये देशभक्त दादासाहब आलतेकर निजी कारसे निपाणी जानेवाले थे । काँग्रेस उम्मिदवार श्री शिरालकरकी अपनी कार थी । पर ऐन मौके पर उन्होंने बहानाबाजी कर कार देनेसे इन्कार कर दिया । यह बात सुन कर यशवंतरावके पैरों तलेसे जमीन ही खिसक गई । पंडितजीके तामसी स्वभावसे वे भला कहाँ परिचित न थे । अब क्या किया जाय यही एक जटिल समस्या थी सबके सामने । कराडमें उन दिनों दो कार थी - एक खुद रावसाहब कल्याणी की और दूसरी हाजी कासमभाई कच्छी की । उसमें भी रावसाहेब कल्याणी बम्बई विधान सभा के लिए स्वयं उम्मिदवार थे और श्री कच्छी उनके कट्टर समर्थक !
आखिरकर कोई चारा न देखकर यशवंतराव दादासाहब आलतेकर को साथ ले श्री कच्छी के यहाँ गये । काँग्रेस विरोधी प्रचारक से काँग्रेस-प्रचार के लिए वाहन मांगना बिलकुल अनुचित था । लेकिन पंडितजी जैसे अखिल भारतीय कीर्ति के नेता के कार्यक्रमों को सरल बनाने के लिए हर प्रकार का अपमान सहन करने की तैयारी यशवंतरावने मन ही मन कर रखी थी । उन्होंने श्री कच्छी से कार की मांग की । उनका हृदय तरह-तरह की शंकाकुशंकाओं से धडक रहा था । किंतु श्री कच्छी ने एक पल की भी देर किये बिना अपने ड्रायवर को बुलाया और उसे मार्ग में आवश्यक खर्च के लिए पचास रुपये देकर कार श्री आलतेकरजी को दी । उन्होंने कार देते समय यह तक नहीं सोचा कि मैं रावसाहब कल्याणी का प्रचारक हूँ; और उन्ही के विरोधी प्रचारकों को कार कैसे दूँ; बल्कि उन्होंने यशवंतराव के पास अपनी हार्दिक वेदना प्रकट करते हुए उलटा कहा : ''पंडित नेहरू मेरी कार में आयेंगे यह सूचना अगर आप मुझे बारह घंटे पूर्व देते तो मैं एकदम नई कार लाकर आपके हवाले कर देता । पंडितजी मेरी कार में आयेंगे सचमुच यह मेरा अहोभाग्य ही है ।'' ये उद्गार काँग्रेस विरोधक और उस समय के रावसाहब के हैं । इस पर से ही सिद्ध होता है कि बाह्य रूप से धनिक-वर्ग भले ही सरकार के साथ हो, पर उनके मनमें भी राष्ट्रीय नेता और उनके कार्यों के लिए अगाध प्रेम और श्रध्दा थी ।
धार्मिक कट्टरता भी प्रतिष्ठामूलक समस्याओं में से ही जन्म देती है । उसमें सनातन दृष्टिकोण होता है, हृदय की विशालता और उदारता का पता नहीं होता । और इसीमें से विविध उलझनें पैदा होती हैं, जिनका हल होना प्रायः असंभव हो जाता है । यशवंतराव इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि जनतंत्र की दृढता उसके प्रचारकों में सांप्रदायिक-दृष्टिकोण के अभाव में ही समाई हुई है । प्रशासक वर्ग विभिन्न सांप्रदायिक दृष्टिकोणों से अपने को जितना अलग रखेगा उतने ही जोर शोर से वह जनतंत्र की भावना का प्रचार, प्रसार और बीजारोपण जनता-जनार्दन के हृदय में आसानी से कर सकेगा । पिछले कईं वर्षों से कराड के कृष्णाबाई घाट पर से मुसलमानों के ताजियें निकलते थे । हालाँकि ताजियें ले जाने के लिए दूसरा मार्ग भी था । लेकिन वंशपरंपरागत से यही सिरस्ता चला आ रहा था । इस बात को लेकर हिन्दू-मुस्लिमों में आये दिन तू-तू-मैं-मैं होने लगी । आखिर प्रश्न दीवानी कोर्ट में गया । दोनों संप्रदायों में से एक संप्रदाय भी अपनी हठ छोडने के लिए तैयार न था । यशवंतराव को यह बात नहीं भाई । उनके विचार में ''कोर्ट का जो फैसला होगा उसे तो प्रत्येक संप्रदाय को झख मार कर मानना पडेगा । पर इससे दोनों संप्रदाय में फूट की जो गहरी खाई तैयार हो जाएगी वह कभी पाटे भी न पट सकेगी । और यह भावना हमेशा के लिए जनतंत्र की मारक सिद्ध होगी ।'' अतः वे दोनों संप्रदायों में परस्पर समझौता करवाने में लगे हुए थे । पेशी के दिन प्रायः वे अपने मित्र श्री ताहेर इनामदार के साथ बाहर बैठ कर मुस्लिम भाइयों को समझाने का प्रयत्न करते रहते थे ।
यशवंतराव का मित्रप्रेम भी उत्कट दर्जेका है । एक बार जिससे उनकी मित्रता हो गई फिर आजीवन कभी तोडेंगे नहीं । भले ही फिर भयंकर से भयंकर संकटों का सामना क्यों न करना पडे । उनके मित्र उनसे रूठ जायेंगे, नाराज होंगे, झगड लेंगे । लेकिन इनकी मित्रता तोड कर कभी नहीं जायेंगे और एकाध जाना भी चाहेगा तो यशवंतराव उसे जाने नहीं देंगे । उनका मित्र-परिवार बहुत बडा है । कारण उनमें अपने मित्र को परखने की अद्भुत कला है ।
मित्र वही है जो मित्र के सुख और दुःख में काम आये । उसके दुःख को अपना दुःख माने और उसके सुख को अपना सुख । मित्र बनाया नहीं जाता हो जाता है । मित्रता के लिए जात पाँत, रीति-रिवाज, धर्म-कर्म या रहन-सहन का बंधन नहीं होता । मित्रता अजरामर होती है । हो सकता है कि किन्ही कारणवश परस्पर दोनों मित्रों में मतभेद होगये हों पर मतभेद नहीं होने चाहिए । मित्र गलती कर जायँ, राह भटक जायँ तो दूसरे मित्र का कर्तव्य है उसे सही रास्ते लाने का ।