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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-३२

जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंग

यशवंतरावजी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व इतना बडा है कि उनके जीवन में अनेक  सुख-दुख के प्रसंग आये । उन सभी का उल्लेख करना असंभव है । लेकिन जो महत्त्वपूर्ण प्रसंग है, उनका उल्लेख करना मैं उचित  समझता हूँ ।

मै यशवंतरावजी चव्हाण हो जाऊँगा ।

यशवंतरावजी जब पढते थे तब उनकी शाला में श्री. शेणोलीकर नाम के शिक्षक थे ।  समयपर व्यवस्थित तथा अच्छे काम करनेवाले शिक्षक के रूप में उनकी ख्याति थी ।  उन्हें पढाने का और क्रिकेट का शौक था ।

उन्होंने एक बार यशवंतरावजी की कक्षा में लडकों से पूछा, 'तुम्हें हर एक को क्या होना है, वह तुम एक कागज की चिठ्ठी पर लिख कर दो ।' हर एक विद्यार्थीने अपने सामने आदर्श होनेवाले एक एक पुरुष का नाम लिखकर दिया ।  यशवंतरावजी ने अपने मन में विचार किया कि किसी तरह बडे पुरुष का नाम लिखकर देना अर्थात स्वयं को धोखा देना है । बडे व्यक्ति अपने कर्तृत्व से बडे हुए है । उनके समान हम भी हो जाये, यह विचार तो अच्छा है । लेकिन वैसा निर्णय अवास्तव ।  इसलिए मैंने मेरी चिठ्ठीपर लिखा - 'मैं यशवंतरावजी चव्हाण हो जाउँगा ।'

शिक्षक ने सभी लडकों की चिठ्ठीयाँ देखी और मेरी चिठ्ठी देखकर वे मेरे पास आये और कहा -

'अरे, तू तो अच्छा अहंकारी दिखता है । तू सार्वजनिक काम में भाग लेता है, यह तो अच्छा है । लेकिन तुम्हें तो कम से कम देश में बडे मनुष्यों का आदर्श अपनी आँखों के सामने रखना चाहिए ।'

यशवंतरावजी ने कहा - 'आपका कहना तो सही है । लेकिन मुझे जो लगा, वह मैंने लिख दिया ।'

मेरी दृष्टि से यह विषय कक्षा में ही समाप्‍त हुआ । लेकिन उन्होंने टीचर्स रूम में जाकर शिक्षक बंधुओं से इस बात की चर्चा की होगी । क्योंकि पाठक सर ने मुझे पूछा । वे हमारे मुख्याध्यापक थे । मैंने उनसे सच्ची बात कहीं । तब उन्होंने मुझसे कहा -

'इस में अनुचित क्या है ? अपना व्यक्तिमत्व बढाने का प्रयत्‍न करने की तुम्हारी इच्छा है, ऐसा उसका अर्थ है, और वह उचित भी है । शेणोलीकरजीने तुम्हें कुछ कहा होगा, तो उसकी ओर ध्यान मत दो ।'