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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-३७

आखिर वह दुष्ट दिन निकल आया । एक दिन लाहोर के जेल में दोपहर के समय एक के आसपास प्रखर सूर्य को साक्षी रखकर उन्होंने प्राणाहुति दी। मातृभूमि के लिए कण कण से सिंचकर उन्होंने तेजस्वी आत्मार्पण किया।

इस घटना से यशवंतरावजी बेचैन हो गये । उनके बालमन पर इस घटना का गहरा परिणाम हुआ । 'देश के लिए प्राणार्पण करनेवाले यतीन्द्रदास मेरे निकट के रिश्तेदार है, ऐसा मुझे लगा ।'

दैनंदिन व्यवहार चल रहे थे । लेकिन यशवंतरावजी अपने मन में खो गए थे । वे गहरे दुख में डूब गये थे । कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, किसे कहूँ, उन्हें कुछ सुझता नहीं था ।

साठवे दिन सारे देश को शोकसागर में डुबाकर उपोषण करनेवाले यतीन्द्रदास का निधन हुआ । उस दिन देवराष्ट्र का छोटा यशवंत अपने वापसी के पथ पर फूटफूटकर रो रहा था । रोते रोते चल रहा था । चलना जरूरी था इसलिए वह चल रहा था । और रो रहा था एक बंगाली कार्यकर्ता के लिए और एक देशभक्त के लिए । जब वे अचेत मन से खेत में अपनी झोपडी की ओर चल रहे थे, तब उन्हें वातावरण धुँधला दिखाई दे रहा था ।

जब बस्ती पर पहुँचे तब अंधकार हो गया था । पेट में भूख होने पर भी भोजन करने की इच्छा नहीं हुई । वे केवल जमीन पर शांत पडे रहे । वे रात के अंधकार में आकाश में शून्य दृष्टि से देख रहे थे । आकाश में तारकापुंज में यतीन्द्र कहाँ दिख पडते हैं, यह वे पागल जैसे देख रहे थे । लेकिन लगभग ९० दिन अथवा शायद अधिक भी होंगे एक मानसिक क्रांति में से यतीन्द्रदासने धैर्य से यह उपोषण जारी रखा था । राजकैदियों के हक के लिए और ब्रिटिश सत्ता का निषेध करने के लिए उन्होंने जो उपोषण किया था, वह एक बडी तपश्चर्या थी । उनकी तपश्चर्या उनकी मृत्यु से पूरी हुई । यतीन्द्रदास का बलिदान युग-युग के लिए अमर रहेगा ।

इतना तो सच है कि इस घटना से यशवंतरावजी की मनोवृत्ति में बदल हो गया ।  यशवंतरावजी देश में घटनेवाली घटनाओं का अर्थ समझ लेने की मनःस्थिति तक पहुँचे थे । जातीय विचारों के संकुचित कांजी हाऊस में से बाहर पडने का उनका विचार दृढ हुआ । उन्होंने निर्णय लिया कि मुझे अपना जीवन देश-कार्य के लिए समर्पित करना चाहिए । उनके बचपन में उन्हें छोटी-छोटी जातियों का और धार्मिक प्रश्नों का थोडा बहुत आकर्षण था । लेकिन उनके विचार धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे थे, यह भी उतना सच है ।  संकुचित वृत्ति से काम करने की अपेक्षा किसी व्यापक दृष्टि से काम करना चाहिए, ऐसे उनके मन का गठन हो रहा था । यतीन्द्रदास की मृत्यु से उनका दृढ निश्चय हुआ और यह प्रश्न यशवंतरावजी ने अपने आप सुलझाया । क्षण-क्षण से और कण-कण से जिसके लिए देहत्याग करना चाहिए, ऐसे ध्येय और काम इस देश में खूब हैं, उसके लिए तो अपना जीवन है ऐसा उनका विचार था । 'मुझे मेरे आयु का मतलब समझ गया, ऐसा कहा तो हर्ज नहीं ।'