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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-३८

सभी जाति धर्म के प्रति आदर

उस समय श्री. विठ्ठलजी रामी शिंदे शैक्षणिक और समाजिक क्षेत्र में अग्रणी थे ।  यशवंतरावजी के मन में उनके बारे में आदर की भावना थी । उनसे मिलना है तो कैसे ?  अन्त में यशवंतरावजी अकेले ही पूना गये । सुबह होते ही पूछताछ करते हुए वे श्री. विठ्ठलजी रामजी शिंदे के घर पहुँचे । श्री. विठ्ठलजी शिंदे घर में ही थे । नमस्कार करके यशवंतरावजी ने आने का कारण बताया । वे यशवंतरावजी की ओर देख रहे थे ।  पहले पहले वे बहुत नहीं बोले । लेकिन वे बीच बीच में पूछते थे - 'आप कौन है ?  कहाँ के रहनेवाले, क्या करते हो, घरमें कौन कौन हैं, उनकी स्वीकृति है कि नहीं ?'  उनका यशवंतरावजी की बोल-चाल पर बारीकी से ध्यान था । आखिर कराड आने के लिए अनुमति दी । उसके साथ एक शर्त रखी । उन्होंने कहा -

'मेरे साथ भोजन के लिए हरिजन को भी घर में बुलाना पडेगा ।' यशवंतरावजी ने तुरंत स्वीकृति दी । तब उन्होंने कहा - 'लेकिन घर में लोगों से पूछा हैं ?'

यशवंतरावजी ने इन्कार करते हुए कहा -

'सभी जाति के मित्र घर में आते हैं । उस संबंध में माँ की कोई शिकायत नहीं है ।'

आखिर हरिजनों के साथ पंगत होगी, इसका विश्वास होने पर उन्होंने अनुमति दी ।

तय किये हुए समय पर वे आये । यशवंतरावजी को मानो स्वर्ग मिल गया । स्टेशन पर से तांगे से वे गाँव में आये । वे यशवंतरावजी के साथ घूमे, फिरे । हरिजन बस्ती में आये और कार्यक्रम समाप्‍त हुआ ।

यशवंतरावजी हररोज शाम के समय सात बजकर तीस मिनट के बाद हरिजन बस्ती में शाला चलाने के लिए जाते थे । उनकी शाला प्रौढ लोगों के लिए थी । उन में से कोई आयेगा, ऐसे मुझे दिख नहीं पडा । फिर वे चार घर में गये और उनसे शिक्षा के संबंध में बातचीत की । तब एक वयोवृद्ध मनुष्य को दया आयी और उन्होंने अपने लोगों से कहा -

'अरे लडकों, ये हररोज अपनी ओर आते हैं । तब हम में से कुछ लोगों को पढने के लिए जाना चाहिए ।'

दूसरे दिन से पाँच-दस लडके आने लगे । यशवंतरावजी ने अध्यापक का काम किया ।  वास्तव में तो उन्हें इस काम का अनुभव नहीं था । फिर भी उन्होंने कक्षा चलाने का प्रयत्‍न किया । उनका यह प्रयोग दो-तीन महिने चला । प्रौढ विद्यार्थियों की संख्या कम हो गयी । उन्होंने बडे उत्साह से शुरू की हुई शाला अपने आप बंद पड गयी ।

यशवंतरावजी को लगा कि यह सब हकीकत कर्मवीर शिंदे को सूचित करनी चाहिए ।  नहीं तो उन्हें लगेगा कि मुझे धोखा दिया गया ।इसलिए उन्हें जो अनुभव आया, वह उन्होंने शिंदे को विस्तृत पत्र लिखकर सूचित किया ।