यशवंतरावजी के छंद
यशवंतरावजी अपने भाई के साथ व्यायाम शाला में जाते थे । बीच-बीच में उनके आग्रह से वे साफा भी बाँधते थे । उन्हें गीतों का और भजनों का बहुत शौक था । परंतु उन्होंने चलने का बहुत व्यायाम किया था । बीच बीच में वे व्यायाम शाला में जाने का भी प्रयत्न करते थे । पर उस में नित्यक्रम नहीं था । परंतु उन्होंने तैरने का खूब व्यायाम किया ।
यशवंतरावजी का मकान कोयना नदी के किनारेपर था । स्नान के लिए वे कृष्णा और कोयना नदी पर जाते थे । आगे उन्होंने तैरने में अच्छी प्रगति की । इसका उन्हें बडा फायदा भी हुआ ।
यशवंतरावजी को नाटक देखने का छंद था । वे लगभग तीन-चार-वर्षं नाटक देखते रहे । नाटकों में जो कुछ भला-बुरा होता है वह भी समझ में आने लगा । नाटकों में काम करनेवाले लोगों की जानपहचान हो गई । उनके साथ यशवंतरावजी के स्नेहसंबंध बढ गये । इसलिए गाँव के सब लोक यशवंतरावजी को पहचानने लगे । श्री. औंधकर लिखित 'बेबंदशाही' नाटक उन्होंने दो-तीन बार देखा ।
नाटक कंपनी के नाटक वे बडी उत्सुकता से देखते थे । 'आनंद-विलास मंडली' एक वर्ष या डेढ वर्ष के बाद कराड आती थी । मास्टर दीनानाथजी मंगेशकर और रघुवीरजी सावरकर इन प्रसिद्ध नटों के नाटक भी कराड में होते थे । यशवंतरावजी ने ये सभी नाटक उत्साह से देखे थे ।
किर्लोस्करवाडी में 'माईसाहब' नाम का नाटक हुआ था । इसी नाटक में यशवंतरावजी ने काम किया था । यशवंतरावजी ने बालगंधर्व और केशवरावजी दाते इन प्रसिद्ध नटों के नाम सुने थे । पर प्रयत्न करके भी उनका काम देखने को नहीं मिला था । केशवरावजी दाते की महाराष्ट्र कंपनी का नाटक कोल्हापूर आ रहा था । यशवंतरावजी ने उनके 'प्रेमसंन्यास' का समाचार 'नवा काल' वृत्तपत्र में पढा था । इसलिए यशवंतरावजी ने कोल्हापूर जाकर 'प्रेमसंन्यास' नाटक देखा । जयंता की भूमिका में केशवराव दाते ने काम किया था । उनका अभिनय और शब्द उच्चारण की पद्धत यशवंतरावजी को आकर्षक लगी । जिसके लिए वे आये थे, उसका उपयोग हुआ और समाधान भी ।
शाला में संमेलन था । इसलिए बर्नार्ड शॉ का 'डॉक्टर डायलेमा' नाटक किया गया । इस नाटक के एक प्रवेश में उन्होंने काम भी किया था । इससे उन्हें बर्नार्ड शॉ के नाम की पहचान हो गयी ।
यशवंतरावजी को तमाशा देखने का भी शौक था । तमाशा का यश लावनी पर और लावनी के साथही नक्काल के हाजिरजबाब पर और चतुर संभाषण शक्ति पर निर्भर रहता है । नक्काल यह प्राणी मराठी लोकनाट्य में विनोदी पुरुष होता है और ये काम करनेवाले कलावंत लोग बहुत सहजस्फूर्त काम करते हैं । उन में उनका बुद्धिचापल्य और संभाषणचातुर्य दिख पडता है ।
यशवंतरावजी ने अपने मित्रों की सहायता से 'शिव छत्रपती मंडल' शुरू किया । श्री. भाऊसाहेब बटाणे की मदद से उन्होंने यह काम शुरू किया । उनके बडे चिरंजीव शिवाजी बटाणे उनके मंडलके प्रमुख सदस्य के रूप में काम करते थे । बटाणे के मंदिर में हरवर्ष गणेशोत्सव मनाया जाता था । इस उत्सव को कराड में एक प्रतिष्ठा थी । यशवंतरावजी और उनके मित्रों ने उस उत्सव के लिए एक मेला करने की कल्पना की । स्वयं यशवंतरावजी उस मेले में वर्ष-दो वर्ष गीत गाते हुए घूमते फिरते थे । उन्होंने इस मेले के लिए कुछ पद लिखकर देने का प्रयत्न किया था । यह बात उन्हें आज भी याद आती है ।
यह कहने का कारण यही है कि ब्राह्मणेतर आंदोलन के क्षुद्र दृष्टिकोन में से बाहर निकलकर कुछ किया जाना चाहिए, ऐसा उनके मन में जो आकर्षण था, उसे अब कहीं नया कार्यक्षेत्र मिल गया था । यशवंतरावजी ने शुरू किया हुआ शिवजयंती उत्सव आगे बहुत वर्षों तक चलता रहा । उत्सव में व्याख्यान, भजनों का आयोजन किया जाता था ।