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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-२५

महात्मा फुलेजी का चरित्र पढनेपर उन्हें महसूस हुआ कि महात्मा फुलेजी के विचार मूलगामी है और वे कुछ नयी दिशा दिखाते है । किसान समाज का होनेवाला शोषण, दलित समाजपर होनेवाला अन्याय और शिक्षा से वंचित रखा हुआ समाज और स्त्रियों के प्रश्न सुलझाये बिना देश का कार्य नहीं होगा, यही फुलेजी के विचारों का सारांश यशवंतरावजी के मन में अंकित हो गया । लेकिन उसके लिए किसी एक जाति का द्वेष किया जाना चाहिए, यह बात यशवंतरावजी को बिलकुल पसंद नहीं थी । जो समाज पीछे पडे है उन्हें जागृत करना, उन में एक नवीन विचार निर्माण करना यही एक उत्तम मार्ग है, यही उनका विचार था ।

तिलकजी के संबंध में जो साहित्य था वह साहित्य यशवंतरावजी ने पढ लिया । उनके मन पर तिलकजी के व्यक्तिमत्त्व का बडा परिणाम हुआ । जाति-जमाती के जो प्रश्न है, उनके बाहर रहकर कुछ राष्ट्रीय स्वरूप के जो प्रश्न हैं, उनके लिए तो कुछ करना चाहिए यही विचार उनके मन में आया । उनके मन में तिलकजी और ज्योतिराव फुलेजी की तुलना हो गयी । उन दोनों के विचारों में यशवंतरावजीको कोई साम्य दिखाई नहीं दिया । इसलिए उनके मन में थोडासा खेद था । फिर भी ये दोनों बडे व्यक्ति हैं ।  यशवंतरावजी ने दोनों की तुलना करने का विचार छोड दिया । लेकिन दोनों के द्वारा कहे गए विचार बडे महत्त्वपूर्ण हैं । तिलकजी ने 'स्वराज्य' का विचार कह दिया ।  शिक्षा से गरीबों की उन्नति होनी चाहिए और समाज में समानता निर्माण होनी चाहिए, यह विचार महात्मा ज्योतिबा फुलेजीने कहा । ये दोनों विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं ।  इसलिए ये दोनों व्यक्ति भी अपनी-अपनी दृष्टि से बडे है । इस प्रकार यशवंतरावजी का निर्णय हुआ ।

कराड में दिवाकर वैद्य का दवाखाना था । यह दवाखाना मानों एक वाचनालय था । वे बम्बई से आनेवाले 'श्रद्धानंद', 'नवाकाल', 'विविध वृत्तपत्र' पढते थे । यशवंतरावजी पूना के 'ज्ञानप्रकाश' और 'केसरी' नियतकालिक पढते थे । वाचनालय की बैठकों में विविध विषयोंपर चर्चा होती थी । वहाँ होनेवाली चर्चाएँ बडी बोधप्रद थी । पर ये चर्चाएँ यशवंतरावजी के विचारों से मिलती जुलती नहीं थी ।

आगे चलकर माँ ने साखरेबुवा की 'ज्ञानेश्वरी' पढने के लिए यशवंतरावजी से कहा ।  यशवंतरावजी ने 'ज्ञानेश्वरी' पढी, पर समझने के लिए कठिन । पुरानी भाषा होने के कारण माँ यशवंतरावजी से ज्ञानेश्वरी पढवा लेती थी । इस प्रकार इस पठन से यशवंतरावजी के विचारों का विकास हुआ । आगे चलकर ये विचार यशवंतरावजी के व्यक्तित्व को समृद्ध करते गए ।

और एक बात - एक सभा में दिनकररावजी जवलकर ने एक सभा में भाषण किया था ।  उसने उस भाषण में लोकमान्य तिलकजी की आलोचना की थी । लोकमान्य तिलकजी तो अंग्रेजों के विरुद्ध लडनेवाले सेनापति थे । ऐसी यशवंतरावजी की भावना हुई थी ।  इसलिए बडे व्यक्ति पर आलोचना करनेवाले व्यक्ति अंग्रेजों के मित्र नहीं है क्या ? इस प्रकार का शक और विचार यशवंतरावजी के मन में आया । इतनीसी छोटी उम्र में उनके मन में यह विचार आया इसका उन्हें आश्चर्य लगता है ।

आगे वे काँग्रेस के कार्यकर्ता बने, वे काँग्रेस का प्रचार करने लगे । फिर स्वतंत्रता के नेता बने और अनेक शासकीय पदोंपर विराजमान बने । इन पदों पर रहकर उन्होंने अनेक सामाजिक कार्य किये । उसके बाद विदेशमंत्री, रक्षामंत्री और अर्थमंत्री की हैसियत से कार्य करके राष्ट्रीय उन्नति में योगदान दिया और भारत के आधुनिक इतिहास पर नाम अंकित किया ।