• 001_Krishnakath.jpg
  • 002_Vividhangi-Vyaktimatva-1.jpg
  • 003_Shabdhanche.jpg
  • 004_Mazya-Rajkiya-Athwani.jpg
  • 005_Saheb_14.jpg
  • 006_Yashodhan_76.jpg
  • 007_Yashodharshan.jpg
  • 008_Yashwant-Chintanik.jpg
  • 009_Kartrutva.jpg
  • 010_Maulik-Vichar.jpg
  • 011_YCHAVAN-N-D-MAHANOR.jpg
  • 012_Sahyadricheware.jpg
  • 013_Runanubandh.jpg
  • 014_Bhumika.jpg
  • 016_YCHAVAN-SAHITYA-SUCHI.jpg
  • 017_Maharashtratil-Dushkal.jpg
  • Debacle-to-Revival-1.jpg
  • INDIA's-FOREIGN-POLICY.jpg
  • ORAL-HISTORY-TRANSCRIPT.jpg
  • sing_3.jpg

अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-१३

माँ पीहर में बहुत दिन नहीं रह सकती थी । प्लेग के दिन समाप्‍त हो गए । फिर वे कराड आये । कराड में जिस किराये के घर में वे रहते थे । उस घर में वे रहने लगे ।  लेकिन आगे क्या यही प्रश्न था । उनकी माँ ने कष्ट कर के उन्हें जिन्दा रखा और साहसी बनाया ।

इस समय यशवंतरावजी के 'बडे भाई ज्ञानदेव सत्रह-अठराह वर्षों के थे । यशवंतरावजी के पिताजी के अनेक बेलीफ मित्र उनकी माँ की सांत्वना के लिए आते और हम कुछ तो प्रयत्‍न करेंगे ऐसे कहकर चले जाते । यशवंतरावजी के पिताजी बडे प्रामाणिक और निष्ठा से काम करनेवाले गृहस्थ थे । इसलिए उनके बारे में समव्यवसाय में होनेवाले लोगों को सहानुभूति थी । विशेषतः कराड के उस समय के मुन्सफ को भी सहानुभूति थी ।  उन्होंने यशवंतरावजी की माँ को बुलाकर धैर्य दिया और कहा कि - ''मैं तुम्हारे लडके को नौकरी देने की सिफारिश करता हूँ ।' परंतु यह बात उनके हाथ में नहीं थी । जिला न्यायाधीश के हाथ में थी ।

बेलीफ श्री. शिंगटे उनके पिताजी के अच्छे मित्र थे । उन्होंने उनके बंधु की नौकरी के लिए बहुत प्रयत्‍न किये । श्री. शिंगटे के मतानुसार उनकी माँ अपने दो बच्चों को लेकर सातारा चली गयी । श्री. शिंगटे भी साथ थे । वे सब सातारा कोर्ट में पहुँचे । वहाँ जानेपर शिंगटे ने कहाँ - 'चलो, तुम्हे साहब के सामने खडा करना है ।' वे हम सबको लेकर उनके ऑफिस में दूसरे एक अधिकारी की और लेकर गये ।

हम वहाँ से वापस निकल पडे तब यशवंतरावजी की माँ की आँखों में आनंद के आँसू थे । क्योंकि जिला न्यायाधीशने यशवंतरावजी के पिताजी के रिक्त स्थान पर बडे बंधु को बेलीफ के रूप में नौकरी पर लेना कबूल किया था और वैसा आदेश भी तैयार कर रखा था ।

यशवंतरावजी कहते है कि एक अंग्रेज अधिकारी ने हमारे परिवार के साथ मानवता का बर्ताव किया था । (परतंत्र प्रशासन में ऐसा नहीं हो सकता था ।) हुआ वह भी मानवता के नाते ।

यशवंतरावजी अपनी माँ के साथ कराड वापस आये । एक दो सप्ताह में यशवंतरावजी के बंधु को नौकरीपर हाजिर होने का आदेश मिल गया । उनका घर स्थिर हुआ और कष्टप्रद क्यों न हो, लेकिन जीवन की अगली सफर शुरू हुई । यशवंतरावजी के पिताजी के एकाएक निधन से परिवार पर आया हुआ संकट कुछ कम हुआ था । फिर भी उन्हें उनके ननिहाल का सहारा लेकर चलने की जरूरत थी । इसलिए हर वर्ष दिवाली की छुट्टी में या अप्रैल और मई महिने में छुट्टी में कराड से देवराष्ट्र जाने का उनका कार्यक्रम हमेशा का कार्यक्रम बना था । इसी कारण से यशवंतरावजी की माध्यमिक शिक्षा पुरी होने तक देवराष्ट्र गाँव से उनका संबंध हमेशा बना रहा । इसलिए उस गाँव में सामाजिक परिस्थिति, वहाँ देखे हुए मनुष्य, वहाँ आए हुए अनुभव ये सब उनके भावनाशील जीवन के अंग बन गए है ।

यशवंतरावजी के बडे भाई उस समय विटा (खानापूर तहसील) में नौकरी के लिए रहते थे । यशवंतरावजी और उनकी माँ दोनों कराड में थे । कराड में प्लेग की बीमारी होने के कारण कराड की शाला बंद थी । इसलिए मँझले भाई गणपतराव कुछ महिनों के लिए पढने के लिए तासगाँव की शाला में चले गये थे । कम से कम अभ्यास तो होगा । वे लगभग चार महिने तासगाँव में थे और यशवंतरावजी तथा माँ कराड में ।