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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-१४

इस बंधु का यशवंतरावजी पर बडा प्रेम था । ऊँचाई से मध्यम, काला-साँवला वर्ण, चेहरे का ढंग थोडा-बहुत यशवंतरावजी जैसा, सिरपर रंगाया हुआ साफा, हाथ में छाता, डोलते-डोलते चलने की आदर यह उनकी विद्यार्थी अवस्था से नजर के सामने होनेवाला चित्र आखिर तक यशवंतरावजी के मन में रहा । मनुष्य की पहचान करने में और मित्रता करने में वे बहुत होशियार थे । लोगों के प्रश्न समझकर उनकी मदद करने के लिए उनको बडा उमंग था । इसलिए उनकी अपेक्षा उम्र से बडे होनेवाले लोगों में वे लोकप्रिय थे । उन्हें खेलने का आकर्षण था । उनके समवयस्क विद्यार्थियों के साथ वे उत्तम कुश्ती खेलते थे । तिलक हाइस्कूल में एक कुश्ती की स्पर्धा में उत्तम कुश्ती करके पुरस्कार प्राप्‍त किया था । यह कुश्ती देखने के लिए यशवंतरावजी गये थे । और वह कुश्ती तथा उस में उनकी निपुणता देखकर यशवंतरावजी को अपने भाई के बारे में बहुत आदर लगा । उनके समान उन्हें अच्छी कुश्ती नहीं आती थी । वे उनके साथ व्यायाम शाला में जाते थे । बीच-बीच में उनके आग्रह से वे साफा भी बांधते थे । उनका स्वास्थ्य उनकी अपेक्षा उत्तम था ।

गणपतराव स्वयं बहुत बुद्धिमान थे । परंतु अपने घर की आपत्ति से और परिस्थिति से वे अपनी शिक्षा पुरी नहीं कर सके । यशवंतरावजी के अनुभव से वे उत्तम खिलाडी और लोकप्रिय विद्यार्थी थे । यदि वे सब समय राजनीति में पड जाते तो उन्होंने अच्छा नाम कमाया होता, ऐसा उनका अनुमान है । लेकिन उन्हें स्वयं परिवार के प्रश्नों में उलझना पडा । यशवंतरावजी के लिए उन्होंने अपनी शिक्षा का भी त्याग किया और उनकी शिक्षा पूरी करने के लिए भी प्रयत्‍न किया ।

परिवार के मार्गदर्शन का सभी बोझ माँ पर था और वह अपने काम सँभालकर ये सब कर रही थी । यशवंतरावजी की माँ निरक्षर थी । लेकिन वह अपने मन से बहुत सुसंस्कृत थी । गणपतराव इंदौर से वापस आने पर उसने उसे कहा - 'इंदूर जाने में तू गलती की है । अब दूसरों को दोष मत दो । क्योंकि उसके बिना कारण कटुता पैदा होगी । अपनी गलती आपको ही सुधारनी चाहिए । तू फिर से शाला में जाने के लिए शुरुवात कर ।'

गणपतराव ने माँ की सलाह मान ली और उस वर्ष में होनेवाली परीक्षा को बैठने का प्रयत्‍न किया । परंतु उनका मन शाला में नहीं लगा । उसने निश्चित तय किया कि अब मैं माँ को कष्ट नहीं करने दूँगा । शाला छोडकर एक स्थानिक नौकरी स्वीकार कर उन्होंने अपना जीवनक्रम शुरू करना तय किया । उसने उस समय यशवंतरावजी से कहा - 'माँ काम नहीं करेगी और तू अपना शिक्षा-क्रम पूरा कर । परिवार चलाने की जिम्मेदारी अब मुझ पर है ।'

और वह जिम्मेदारी उन्होंने आखिर तक निभायी । इसलिए परिवार में सभी सदस्यों ने गणपतराव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है ।