पिताजी का निधन और उनके भाई
इ.स. १९१७-१८ का वह समय । युद्ध समाप्त हो रहा था । और उस समय हिंदुस्तान में जनता प्लेग जैसे महाभयंकर बीमारी से संघर्ष कर रही थी । प्लेग ने चारों ओर कहर ढाल दिया था । परिवार के परिवार नष्ट हुए थे । कराड में भी प्लेग का कुहराम मच गया था । वे दिन थे अनाज की कटाई करने के । प्लेग ने गाँव में प्रवेश किया । तब गाँव के लोग बाहर पडने लगे । बलवंतराव को भी गाँव के बाहर पडना आवश्यक था । इसलिए विठाई और बच्चों को देवराष्ट्र को भेज दिया । परंतु मामा के छोटे से घर में ये सब लोग नहीं रह सकेंगे इसलिए महिंद घर के पास होनेवाले बडे घर में दो कमरे में यशवंतरावजी के परिवार की व्यवस्था कर दी थी । वैसे उनके मामा के घर से उनका घर नजदीक था । इसलिए दिनभर वे मामा के घर के सामने रास्ते पर खेलते रहते थे । उस समय यशवंतरावजी चार वर्षों के होंगे ।
बलवंतराव अकेले ही कराड में रहे । नौकरी का बंधन था । उसके लिए उन्हें गाँव में ही रहना पडा । दिन बीत रहे थे । किसी न किसी परिवार पर हर दिन आक्रमण होता था । हाहाकार मच गया था । बलवंतराव अपनी आँखों से वह दुःख देख रहे थे । नौकरी कर रहे थे । बीच-बीच में देवराष्ट्र जाकर पत्नी बाल-बच्चों को देखकर वापस आते थे ।
ऐसे ही एक दिन समय निकालकर पत्नी और बच्चों को देखने के लिए देवराष्ट्र गये थे । उस समय उन्हें ज्वर आया था । उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था । यशवंतरावजी ने खेलते समय पिताजी को सामने से आते हुए देखा । और भागते भागते वे अपने पिताजी से चिपक गये । लेकिन हमेशा की तरह उन्होंने यशवंत को अपनी गोद में नहीं लिया । उन्होंने यशवंतरावजी का हाथ अपने हाथ में लिया और यशवंत से कहा - 'हम घर जायेंगे । मेरी तबीयत ठीक नहीं है ।'
यशवंत उनकी उंगली पकडकर घर ले आया । माँ-पिता की क्या बातचीत हुई वह यशवंत की समझ में नहीं आयी । लेकिन माँ ने पिताजी के लिए बिछौना डाल दिया और उस पर वे सो गये । यशवंतरावजी को इसकी कल्पना नहीं थी कि उनकी यह अंतिम शय्या होगी ।
इसके बाद तीन-चार दिन होने पर भी उनका ज्वर कम नहीं हुआ । माँ घबरा गयी । वह दुःख करने लगी । यशवंतजी की समझ में कुछ नहीं आया था । गाँव में लोगों का आना जाना शुरू हुआ । उससे कल्पना आयी कि कुछ तो गंभीर प्रसंग है । उसके परिणामों की यशवंतजी को कोई कल्पना नहीं थी । मृत्यु क्या होती है यह यशवंतरावजी को मालूम नहीं था । एक-दो दिन में पिताजी का स्वास्थ्य बहुत गंभीर हुआ । उनके अंतिम समय में यशवंतजी के साथ सभी बच्चों को घर के बाहर लाया गया । और तुलसी के चबूतरे पर कंबल बिछाकर बिठाया गया । थोडी देरे के बाद यशवंतने माँ के दुःख की दहाड सुनी । हक्का-बक्का होकर सब भाई तुलसी का चबूतरा छोडकर घर की ओर जाने लगे । लेकिन दूसरे लोगों ने उन्हें रोक लिया और कहा कि - 'बच्चों, यहाँ ही ठहरो । घर में मत जाओ ।'
यह याद उन्हें आज भी व्यथित करती है । इसलिए माँ का प्रेम बढ गया होगा ऐसा यशवंतरावजी का मत बन गया । माँ ने सब बच्चों को दिलासा दिया, आत्मीयता दिखायी । लडकों की ओर देखकर उसने अपना दुःख दूर रखा । सच्चे अर्थो में पिताजी के निधन के बाद वे सभी अक्षरशः अनाथ हो गये थे । नानी और मामा का सहारा था । लेकिन उसके लिए भी कुछ सीमा थी । यशवंतरावजी ने अपनी माँ की ओर से भविष्यकालीन गृहस्थी की जो हकीकत सुनी है उससे मालूम होता है की अगला सब उसे अकेला ही करना पडा ।