पुराना मध्य प्रदेश कई वर्षो से द्विभाषी राज्य रहा है जिसमें हिन्दी और मराठी भाषी जनता करीब करीब बराबरी की लोकसंख्या में मिल-जुलकर रहती आई है । जब सत्ता अंग्रेजों के हाथ में थी तब तो दोनों के संघर्ष का कोई सवाल ही नहीं था, दोनो मिलकर अंग्रेजो से लडा करते थे । पर जब १९३५ के एक्ट के बाद सत्ता का काफी प्रमाण में हस्तांतर हुआ और राष्ट्रीय मन्त्रिमण्डल बने तब आपस के तनाव पैदा होने लगे कि सत्ता के मुख्य सूत्र किस दल के हाथ में रहें । सत्ताकामिनी के प्रभाव और प्रलोभन से उंचा उठ कर काम करना कठिन होता है । वह एक योग है जिसका सतत जागरूक रहा कर पालन करना होता है । और फिर, प्रत्येक भाषिक क्षेत्रो में ऐसे लोग तो होते ही है जो अपने स्वार्थ-साधन के लिए विद्वेष की अग्नि में तेल झोंकते है, जिनके प्रभाव-परिधि से बाहर रहना स्थितप्रज्ञ का ही काम है ।
ऐसे तनावों का पहला विस्फोट खरे-प्रकरण में हुआ और तबसे इस प्रदेश को एक विचित्र दुर्भाग्य ने आ घेरा । दोनो दलों के समझदार और विवेकी लोग इस स्थिती से दुखी थे और इस वातावरण को सुधारने का प्रयत्न करते थे । स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद एक अरसा ऐसा भी आया जब दोनों के सम्बन्ध सुधरे । पर फिर राजनीति ने पलटा खाया और आपस का तनाव बढ गया । इसको घटाने का एकमात्र उपाय यही था कि हिन्दी भाषी लोग मराठी भाषियों का और मराठी भाषी लोग हिन्दी भाषियों का स्नेह और विश्वास संपादन कर पाते पर ऐसा नहीं हो पाया बल्कि उलटा यह हुआ कि सत्ताधारी व्यक्तियों के रवैये के कारण यह स्नेह और विश्वास कटुता और द्वेष में परिवर्तित हो गया, इस हद तक की जब राज्य-पुनर्गठन आयोग की स्थापना हुई तो एक भी मराठी भाषी व्यक्ति यह कहने के लिए सामने नहीं आया कि मध्यप्रदेश न टूटे, हम पुराने दोस्तों के साथ रहने के लिए तैयर है । जिनके हाथ में सत्ता थी वे स्वाभाविकत: नहीं चाहते थे कि राज्य टूटे। पर जिनके हाथ में नही थी उन्हे तो राज्य कें टूटने के बिना कोई आशा ही नहीं थी । उन्होने सोचा कि चलो, यहां तो हमें सुखचैन नसीब नहीं हुआ, दूसरी बस्ती ही रमाऐ । जिस परिस्थिती और वातावरण में यह हुआ यह सुखदायी हर्गिज नहीं था ।
राज्य-पुनर्गठन के बाद जिन लोगों के हाथ में सत्ता थी वे सत्ताहीन हो गए, और सत्ता का केन्द्र अन्य लोगों के हाथ में चला गया । भाषायी प्रान्तरचना में यह अनिवार्य था, इसलिये इस प्रदेश में जब हिन्दी भाषिको के हाथ मे मराठी भाषिकों हे हाथ में सत्ता चली गई तो एक दल में विशेष आनन्द और उत्साह हुआ तो दुसरे में निराशा और निरुत्साह । जिनके मन में जितनी कटुता थी उसी प्रमाण में यह उत्साह या निरुत्याह पैदा हुआ । और जिनका सत्तात्मक राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था, वे तब भी बोले - "को नृप होय हमें का हानि" । पहले भी हम मजे में रहे. अब भी हम मझे में रहेंगे ।
राजनैतिक परिवर्तनो और परिस्थितोयो से समरस होने में समय लगता है, कठिनाई होती है । इसलिए कभी कभी स्वतंत्र विदर्भ की मांग करनेवालों में अत्यधिक कटुता और विद्वेष के लक्षण दिखाई दें तो उससे क्रोधित नहीं होना चाहिए बल्कि उसकी पुरानी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर उसे सहानुभूति से समज्ञने की कोशिश करनी चाइए । क्रोध को अक्रोध से, और विद्वेष को प्रेम से जीता जा सकता है ।
जिस प्रकार बम्बई में महाराष्ट्र राज्य के प्रारंभ में कुछ दिनों तक ऐसा भय था कि उस नगरी का सर्वांगणी स्वरुप नष्ट होने की संभावना है, और वहां रहने वाले विविध जाति, भाषा और धर्मो के लोगो को अनुकूलता का वातावरण नही मिलेगा, पर कुछ महीनों में ही यह भय निराधार साबित हुआ । आज वहां गुजराती समाज, हिन्दी भाषी तथा बाकी सभी समाजों के लोग अपना नित्य का जीवन आनन्दपूर्वक संपन्न कर रहे है । उसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव से विदर्भ के मराठीतर लोगो को भी विदित होगा कि उनकी आशंकाएं बेबुनियाद है ।