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अभिनंदन ग्रंथ - (हिंदी लेख)-भाषा साहित्य और यशवंतरावजी चव्हान- 3

इसलिए साहित्यकार की यह वृत्ति होती है कि यह कदापि मानने की जरूरत नही है कि यदि भाषायी प्रान्त नहीं बनते तो कोई बहुत बडा अनर्थ हो जाता, और यदि बन गए है तो बहुत बडा अनर्थ हो गया । यह तो शासन-व्यवस्था का इन्तजाम है, जो स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजी की जगह मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को जो महत्त्व प्राप्त हुआ, उसका स्वाभाविक पर्यवसान है । प्रजातन्त्र में प्रजा को भाषा का सवोंपरि महत्व है, इसलिए प्रजा की भाषा में शासन, शिक्षा, और वैद्यानिक कार्रवाई होना अनिवार्य है । गान्धीजी ने उसे मान्यता दी उसके पीछे यही दृष्टि थी ।

पर साथ ही साथ गान्धीजी ने राष्ट्रभाषा पर भी अत्यन्त जोर दिया क्यो कि भिन्न भिन्न भाषाओं के मणियों को एकत्रित लाने का वही एक मात्र सूत्र है । राष्ट्रभाषा के सूत्र के बिना बिखरे हुए मोतियों का आभूषण तैयार नहीं होगा, और मां राष्ट्र-भारती के गले को सुशोभित एवं अलंकृत नहीं कर सकेगा ।

इस पृष्ठभूमि पर यह मान लेना कि भिन्न भाषी प्रान्तो के बनने से भारतीय एकता को खतरा होगा, तर्क-संगत नहीं लगता ।  भिन्न भिन्न भाषाएं बोलनेके कारण हमारी संस्कृति भिन्न भिन्न नहीं हो जाती । बद्रीनाथ-केदारनाथ की यात्रा पर सब प्रान्तो और भाषाओं को बोलनेवाले लोग जाते है, और उसी प्रकार रामेश्वरम् के शिवलिंग पर सभी लोग गंगोत्री का जल चढाते है । भारतीय संस्कृति की एकता के ये प्रतीकस्थल हमारे पूर्वजो ने शताब्दियो पहले से स्थिर कर के रखे है जिसके कारण राज्य और राजनिति भले ही बदलती रहे हमारी मूलभूत सांस्कृतिक एकता अक्षुण्ण ही बनी रहती है ।
और फिर, एक तो भाषायी प्रान्त बनाना नहीं चाहिए था, -आन्ध्र का भी नहीं ! और यदि बनाया था तो फिर भाषायी प्रान्तरचना का जो तर्क ( Logic )  है उसे अन्त तक निबाहता चाहिए । राष्ट्रीय नेताओं ने अन्तमें चल कर इसी दूसरे पर्याय को स्वीकार किया है ।

भाषायी वैमनस्य ना तनाव एक कुत्रिम एवं विकृत स्थिती है, मूल स्वाभाविक स्थिती है भाषायी सामज्जस्य और सहयोग की । मनुष्य के जो चारों पुरुषार्थ है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, वे भाषा से प्रभावित नहीं होते ।  बल्कि वे उनसे परे है । भाषा के निर्माण की प्रसव-वेदना संतो और साहित्यिकों ने भोगी है । कोई भी सच्चा संत या साहित्यिक किसी भी भाषा का द्वेष कर सकता है इसकी स्वप्न में भी कल्पना करना असंभव है । जो मानव मानव के हृदयो को, तथा मानव और ईश्वर को मिलाने का प्रयत्न करते है उनके दिल में विद्वेष की भावना भला कैसे आ सकती है ?

संघर्ष और विद्वेष यह राजनिति की, विशेषत: सत्तात्मक राजनीति की देन है । जैस कि पहले कहा गया है, जो सत्ता के लिए झगडते है, हाथापायी करते है, वे फिर हर किसी दलील या हथियार का उपयोग करने लगते है - भाषायी द्वेष-विद्वेष का भी । वे तो इस सिद्धान्त पर चलते है कि लढाई में किसी भी चीज का इस्तैमाल करना जाजज् है ।

विदर्भ की मांग के आन्दोलन का इसी पृष्ठभूमि पर विचार करना चाहिए । तभी हम इस समस्या को सही सही समझ सकते है, और उसका निराकरण या समाधान कर सकते है ।
जो लोग स्वतंत्र विदर्भ की मांग करते है उन्हें विशाल द्विभाषी बम्बई राज्य में रहने में एतराज नही था । लेकिन महाराष्ट्र के अलग राज्य के बनते ही उनके आन्दोलन ने जोर पकडा - वह भडक उठा । अगर भी क्यो? इसका क्या कारण है ? इसपर हमें सहानुभूति से, तटस्थापूर्वक और गहराई में जाकर विचार करना चाहिए - असहिष्णुता, दुराग्रह या डण्डेबाजी से नहीं । हम लोग प्रजातन्त्र के युग में रहते है जहां इन तीन कमजोरियों के लिए - असहिष्णुता, दुराग्रह और जोर जबर्दस्ती के लिए स्थान नही हैं ।