प्रजातान्त्रिक प्रणाली में सत्ता को सेवा का साधन मानना आवश्यक है । जिनके पास सत्ता है उन्हे यह विवेक रखना चाहिए कि वे उसके न्यासी (ट्रस्टी) है, विश्वस्त है, और वह जन-कल्याण का एक उपकरण (instrument) है, माध्यम है । सत्ताधारी व्यक्तियो की ऐसी वृत्ति रही तो भारत की जनता ऐसी उदार है कि वह बार बार उन्हीं के हाथों में सत्ता सौंपेगी । जनात का यह प्रेम और विश्वास निभा ले जाना ही हमारे नेतृत्व की कसौटी है । उस कसौटी पर यदि वे खरे उतरे तो उन्हे, समाज या देश को कोई खतरा नहीं है । फिर हमारे देश में प्रजातन्त्र मजे में चल सकता है, खूब पनप सकता है ।
पर इसके विपरीत सत्तात्मक राजनीति की होड लग जाए, और सेवात्मक राजनीति गौण हो जाए तो फिर विघटन और विभेद के तत्त्व जोर पकडेंगे । आज प्राय: प्रत्येक सूबे में यही हो रहा है, महाराष्ट्र और गुजरात में ही शायद स्वामित्व और मजबूती की भावना सबसे प्रबल है, और बाकी जगह दलबन्दी, और वह बी शासकीय पक्ष मे भीतर, काफी बडें प्रमाण में सिर उठा रही है ।
एक बुनियादी सवाल उठता है कि जो स्वतंत्रता-संग्राम के लिए सैनिक थे, जिन्होने गांधीजी के नेतृत्व में कन्धे से कन्धा भिडा कर अंग्रेजो से अनेक लडाइयां लडीं, जिनके बदन पर आज भी युद्धक्षेत्र की चोटो के निशान दिखाई देते है, वे आज आपस में क्यो लडते हुए जान पडते है ? उसका कारण है, सत्तात्मक राजनिति ! जिनके हाथ में सत्ता है वे यदि उसका उपयोग अपने दल या ग्रूप के हाथों में सत्ता रखने के लिए ही करें और सेवा के लिए नहीं, तो फिर परिस्थिति और भी बिगड जाती है । और यदि इसी सत्ता का उपयोग न्यायबुद्धि से, सेवा और कल्याण के लिए हो, तो यह सवाल गौण हो जाता है कि सत्ता किसके हाथ में रहे ।
कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति, विशेषत: सत्तात्मक राजनीति, संघर्ष, विभेद और विघटन के तत्त्वो का पोषण करती है और उसी से तनाव पैदा होता है, कटुता पैदा होता है । जिनके हाथ में सत्ता होती है वे उसीसे चिपके बैठे रहना चाहते है, और जिनके हाथ में नही होती वे सत्ताधारियों को जैसे बने वैसे, हर किसी उपाय से, निकाल-बाहर करने के लिए जमीन-आस्मान एक करते रहते है । मूल संघर्ष का कारण तो यह होता है, पर उस पर मुलम्मा चढाने के लिए, पर्दा डालने के लिए, तरह तरह की तरकीबें और दलीलें खोज ली जाती है, और भाषा का मामला भी खडा कर दिया जाता है । कारण या उपकरण या हथियार कुछ भी हो, बुनियादी मामला यही होता है कि जो ताकत हमारे हाथ में नहीं है उसे हम कैसे हथियालें ।
भाषा और धर्म का मामला बडा नाजुक होता है । वहि यदि खडा कर दिया तो फिर बडा से बडा आदमी भी अपना विवेक खो देता है और समस्या का असली स्वरुप विकृत हो जाता है, उस पर काला परदा पड जाता है । यह मामला तो बडी सहिष्णुता, दूरदर्शिता और समझदारी से निपटाना जरूरी है । जरा हम भावना के आवेग में बहें, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है, तो हम फिर इस समस्या को नहीं सुलझा सकते । भाषायी समस्या भी कुछ इसी प्रकार की कठिन समस्या है, जिस पर पिछले पांच-सात वर्षो में काफी सोचा-लिखा गया, और जिसके मीठे-कडवे परिणाम हम सबको देखने को मिले ।
भाषायी समस्या के बार में एक साहित्यिक गा दृष्टिकोण राजनीतिज्ञ के दृष्टिकोण से भिन्न होना स्वाभाविक है । वह तो मानता है कि - "सबै भूमि गोपाल की" सब भूमि गोपाल की है इसलिए जिसकी जहां मर्जी हो, रहे । इसके अलावा, साहित्य दिलों को जोडनेवली वस्तु है, तोडनेवाली नही । राजनीति में पक्षगत या दलगत राजनीति आ जाती है इसलिए हो सकता है कि वह विभद की दीवालें खडी करे, पर इन दीवालों को गिराना ही साहित्य का काम है । राजनितिज्ञ दो भिन्न भिन्न भाषायी प्रान्तो की सरहद को सीमा मानता है तो साहित्यिक , संगम । इसलिए राजनीति यदि जोशखरोश की बात करेगी तो साहित्य शान्त-चित्त से तर्क और न्याय की बात करने का प्रयत्न करेगा ।