नए शासन के बारे में यहां के लोगों को जो अनुभव हुआ वह काफी निराशाजनक रहा । वह तटस्थ और निर्व्यत्कि ( impersonal) तो था, पर इतना अत्यधिक, कि लगता था जैसे वह काठ की मशीन हो, जिस में मानवीयता या स्पंदन के लिए कोई स्थान नहीं है । प्रजातान्त्रिक भावनाओ से यह मेल नही रखाता था । इसका कारण था बम्बई राज्य की नोकरीशाही की परम्पराएं जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जमाने से चली आ रही थीं । इस व्यवस्था में कागज के धोडों को ज्यादा महत्त्व था, मानवीय तत्त्वो को कम ।
पुराना अनुभव इससे अलग था । वह एक दुसरे छोर पर था । वहां मानव तत्त्व इतना प्रकट था कि आप यदि सत्ताधारियो के दोस्त है तो फिर आपकी शान-सुविधाओं की सीमा नहीं, और यदि आप उसके दुश्मन है तो फिर शासन आपके पीछे सतुआ बांधकर पड जाएगा और आपको भागते रास्ता नहीं मिलेगा । इन दोनों आत्यन्तिक प्रवृत्तियों के पीछे न्याय-अन्याय का, औचित्य-अनौचित्य का. कोई सवाल नहीं था । इसमें जिनकी चलती थी वे मजे लुटते थे, जिनकी नहीं चलती थी वे त्राहि त्राहि पुकारते थे । मेरी धारणा रही है कि पुराने मध्यप्रदेश के टूटने के पीछे यह अतिरेक काफी जिम्मेदार रहा है ।
अतिरेक दोनों ओर था, पुराने मध्यप्रदेश में तथा पुराने बम्बई राज्य में । और चूंकि घडी का पेण्डुलम एकदम एक छोर से दुसरे विरुद्ध छोर पर चला गया इसलिए वह ज्यादा अखरा, कर्कश लगा, ऐसे लगा जैसे शासकीय गाडी के पहियों का तेल-औंगन चुक था हो, उसमे रेत पडं गई हो ।
जाहिर है कि ये दोनो अतिरेक अनुचित है, और इन दोनो के बीच का सुवर्ण मध्य निकालनेकी जरूरत है तभी ठींक संतुलन कायम होगा, और शासन तथा समाज का ऊंट ठीक करवट पर बैठेगा ।
यह बात तो मैंने एक सर्वसाधारण जन या नागरिक की दृष्टि से कही । उसकी सर्वसाधारण वृत्ति तो यह है की - "को नृप होय हमें का हानि !" राजा कोई भी हो, हमें क्या नुकसान है । वह तो यह चाहता है कि शासन से साथ उसका जो भी सम्बंध आता है उसमें उसे दिक्कत न हो, परेशानी या कठिनाई न हो । यह दिक्कत या परेशानी तब होती है जब जिस सरकारी अधिकारी के सामने उसे जाना पडता है वह समझता हो कि वह उसका मालिक है, उसकी आकड के सामने नागरिक को हमेशा धिधियाना-मिमियाना चाहिए, अर्जी लेकर खडे होना चाहिए, और बार बार चक्कर काटना चाहिए । यह वृत्ति किसी एक विशिष्ट राज्य में नहीं सारे देश में दिखाई देती है । नौकरशाही या शासन समाज पर कितना हावी बन बैठा है उसकी यह लक्षण है ।
इसके लिए जरूरत यह है कि हमारी नौकरशाही और अधिकारी-वर्ग का ही सबसे पहले प्रशिक्षण होना चाहिए । प्रत्येक शासकीय कर्मचारी को यह महसूस करना चाहिए कि प्रजातन्त्र में नागरिक के हाथ मे ही सार्वभौम सत्ता होती है, वही सर्वोपरि है और कर्मचारी उसका सेवक है । नागरिक के प्रति स्नेह, आदर और न्यायबुद्धि रखना उसका कर्तव्य है, वह इसी के लिए वेतन पाता है । नागरिक का सुख-स्वास्थ्य सफल प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक है । प्रजातन्त्र एक जीवन-प्रणाली है जिसमें उदारता और सहिष्णुता अनिवार्य है । यह दृष्टि यदि शासन की तथा उसके नेताओं की होगी तो प्रजातन्त्र सफल होगा और उसके मीठे फल हमें चखने के लिए मिलेंगे ।
प्रजातन्त्र में राजनिति भी अवश्यम्भावी है । भिन्न भिन्न पक्षों के बिना प्रजातान्त्रिक शासन चल नहीं पाता । उसी के परिणाम-स्वरुप पक्ष-गत राजनिति का जन्म होता है । और चूंकि एक पक्ष के हाथ में सत्ता आत जाती है तो उससे सत्तात्मक राजनीति का प्रादुर्भाव होता है । जहां एक हद तक यह अनिवार्य है वहां उससे कुछ बुराइयां भी पैदा हो जाती है । खासकर बुराई तब पदै होती है जब सत्ता को साधन न मान कर साध्य मान लिया जाए ।