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अधुनिक महाराष्ट्र के शिल्पकार-७

उस समय देवराष्ट्र गाँव की आबादी डेढ-दो हजार की होगी । इस छोटी सी आबादी में सभी जाति-जमाति के लोग रहते थे । पाटील लोगों के दोन खानदान वहाँ थे, एक मोरे पाटील का और दूसरा महिंद्र पाटील का । इसके अतिरिक्त यशवंतरावजी के ननिहाल के घाडगे, म्हस्के, मुलीक, भोसले ऐसे और पाँच-पचीस मराठों के घर थे । गडरिया लोगों की बस्ती थी । उनके दस-पंद्रह परिवार थे । संख्या की दृष्टी से दो बडे समाज थे - एक मुसलमान और दूसरा पिछडी जाति का । इनके अतिरिक्त व्यापार करनेवाले कुछ लिंगायत और दो-तीन गुजराती परिवार थे । ये गुजराती परिवार सधन और सुखी थे ।  लिंगायत लोगों की परिस्थिती भी अच्छी थी । दोनों पाटील परिवार में केवल दो-चार परिवार सुस्थिति में थे । क्योंकि उनके खेतों में कुएँ थे । कुएँ में पानी था । इसलिए उनके खेतों में अच्छी फसले आती थी । शेष सब लोग सर्वसाधारण स्थिति में थे ।  अपना जीवन बिताते थे । गाँव में दस-पाँच मंदिर थे और एक दो-मस्जिदें थी ।

पिछडी जाति का समाज यह संख्या की दृष्टि से बहुत था और गाँव में उनका दबदबा था । यह समाज पिछडा हुआ था, लेकिन उसे अस्पृश्य नहीं माना जाता था । पास-पडोस में उनका आना-जाना था । उनका कोई निश्चित ऐसा व्यवसाय नहीं था । लेकिन बीच-बीच में खेती पर काम करने के लिए जाते थे और गरीब परिस्थिति में वे अपनी गृहस्थी चलाते थे । एक-दो घरों को छोडकर शेष लोगों को रहने के लिए बाँधे हुए घर न थे । एक दूसरे पर पत्थर रखकर खडी की हुई दीवारे और उनकी ऊँचाई भी कम ।  बरसात में किसी तरह रहने के लिए की गई व्यवस्था । ऐसी हालत में ये लोग रहते थे । यह बस्ती यशवंतरावजी के ननिहाल के पास थी । इसलिए उस समाज में अनेक लोगों से यशवंतरावजी की जान पहचान हो गयी थी और वहाँ जाने पर उनके बीच में खेलने के लिए आनेवाले लडकों में जैसे मराठा और मुसलमानों के लडके होते थे वैसे पिछडी जाति के लडके भी आते रहते थे । कभी-कभी उनकी बस्ती में जानेका प्रसंग आता रहता था । यशवंतरावजी वहाँ उनके साथ खेले है, घूमे-फिरे है । बचपन से उनके साथ रहने से और सहवास का यह अनुभव होने के कारण यशवंतरावजी के मन में उस समाज के विषय में हमेशा के लिए अपना घर हो गया है ।

गाँव में मध्यम स्थिति से लेकर उत्तम स्थिति में रहनेवाले दस-पंद्रह ब्राह्मण परिवार थे । उनमें से कुछ लोगों की जमीनदारी थी । उनके लडके शिक्षा के लिए बाहर के गाँव जाते रहते थे । लेकिन यशवंतरावजी के बचपन में इन लोगों के बारे में गाँव में एक प्रकार का आदर था, यह उन्होंने देखा था । लेकिन इस आदर के तहत ढाँका हुआ एक अंतर था । लेकिन उस अंतर का ज्ञान उन्हें भविष्य में होने लगा ।

अनेक प्रकार से, अलग-अलग स्तर पर जीवन बितानेवाला और अलग-अलग संस्कृति में रहनेवाला छोटासा समाज उस गाँव में रहता था ।

इस गाँव का भौगोलिक प्रदेश एक अर्थ से महत्त्वपूर्ण था । इसका मुख्य कारण है कि इस प्रदेश में होनेवाले देवालय । इस गाँव की नैॠत्य दिशा की ओर सागरेश्वर का मंदिर है । यह मंदिर इस प्रदेश में रहनेवाले लोगों के मन को आकर्षित करनेवाला स्थान था ।  इसी तरहका लिंगोबा का दूसरा स्थान हैं । छोटी-बडी पहाडी के करवट में बसे हुए देवस्थान मन को प्रसन्न करनेवाले चैतन्यस्थान हैं । कराड से लेकर ताकारी तक आनेवाले जानेवाले लोग कृष्णा नदी की घाटी में से ऊपर आने पर सागरेश्वर की घाटी और सागरेश्वर के मंदिर में जाकर दर्शन किये बिना आगे नहीं जाते । इसलिए सागरोबा और देवराष्ट्र इन दोनों में एक प्रकारका अटूट नाता निर्माण हुआ हैं ।
 
इस गाँव की उत्तर की तरफ दो-तीन मील पर एक छोटासा नाला बहता हैं । वह नाला उस गाँव की खेती के बहुत से भाग को स्पर्श करके बहता जाता है । इसलिए उसका महत्त्व है । उसका नाम है सोनहिरा । यशवंतरावजी के मन में इस सोनहिरा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । उन्हें उनकी माँ की याद आनेपर देवराष्ट्र की याद आती है और फिर सागरेश्वर, सोनहिरा इन दोनों की याद आती हैं और सोनहिरा का नाम लिया तो यशवंतरावजी को माँ की याद आती है । बचपन में ऐसे जो कुछ स्थान है वे भावनाओं को स्पर्श करते रहते हैं । वे सब भी कभी अपने मन में हमेशा के लिए महत्त्वपूर्ण प्रतीक बन जाते हैं । वैसेही इन स्थानों का हुआ है ।